सभी पुष्टिमार्गीय वैष्णवजन को महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य के प्राकट्य उत्सव की ख़ूब-ख़ूब बधाई
युगदृष्टा जगद्गुरु श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु संक्षिप्त विवरण
प्राकट्य: संवत 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी (चम्पारण)
माता-पिता: श्री ईलम्मागारू जी – श्री लक्ष्मणभट्ट जी
मूल निवासी: कांकरवाड़ (आंध्रप्रदेश)
उपनयन: संवत 1540, चैत्र शुक्ल नवमी (काशी)
अध्ययन: श्री विष्णुचित्त जी, पिताजी श्री लक्ष्मणभट्ट जी तथा श्री माधवेन्द्र यतिजी के पास शास्त्रों का अध्ययन किया
विवाह: संवत 1558 आषाढ़ शुक्ल पंचमी श्री महालक्ष्मी जी के साथ
कनकाभिषेक: विद्यानगर में विद्वानों की धर्मसभा में शास्त्रार्थ में दिग्विजय प्राप्त की तब वहां के राजा कृष्णदेव राय ने आपका कनकाभिषेक किया एवं विद्वानों ने आपका आचार्यतिलक किया।
ब्रह्मसम्बन्ध की आज्ञा: संवत 1550 की श्रावण शुक्ल एकादशी की मध्यरात्रि को गोकुल के ठकुरानी घाट पर प्रभु ने साक्षात् दर्शन देकर जीवों को ब्रह्म-सम्बन्ध देने की आज्ञा की जिसके अनुरूप आपने सर्वप्रथम श्री दामोदरदास हरसानी को ब्रह्म-सम्बन्ध देकर ब्रह्म-सम्बन्ध दीक्षा का आरम्भ किया। दैवी-जीवों को शरण में लेकर उनका उद्धार किया।
सेवाप्रकार:
श्री गोवर्धनधरण प्रभु की आज्ञानुसार उनको श्री गिरिराज जी से बाहर पधराकर मंदिर में प्रतिष्ठापित कर उनकी सेवा का प्रकार प्रारंभ किया, सेवा की रीति एवं प्रीति बताई।
भारत परिक्रमा:
समस्त दैवी-जीवों के उद्धार हेतु आपने सम्पूर्ण भारतवर्ष की तीन परिक्रमाएँ की. प्रथम संवत 1553 में, दूसरी संवत 1558 में एवं तीसरी संवत 1566 में पूर्ण हुई. तत्पश्चात आपने गृहस्थाश्रम प्रारंभ किया।
पुत्र: श्री गोपीनाथ जी (प्राकट्य संवत 1567), श्री विट्ठलनाथ जी (प्राकट्य संवत 1572) बैठक जी: सम्पूर्ण भारतवर्ष में आपकी 84 बैठकें प्रसिद्द हैं।
ग्रन्थ-साहित्य:
ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, भागवत की सुबोधिनी टीका, तत्वार्थदीप निबंध, पूर्वमीमांसा-भाष्य, गायत्रीभाष्य, पत्रावलंबन, पुरुषोत्तम-सहस्त्रनाम, दशमस्कन्ध अनुक्रमणिका, त्रिविध नामावली, शिक्षाश्लोका:, षोडशग्रंथ (यमुनाष्टक से सेवाफल), सेवाफल विवरण, भगवत पीठिका, न्यासादेश, प्रेमामृत, मधुराष्टक, परिवृढाष्टक, नंद-कुमाराष्टक, कृष्णाष्टक, गोपीजन वल्लभाष्टक आदि कई दिव्य एवं सुन्दर ग्रंथों की आपने रचना की।
ब्रह्मवाद की स्थापना:
मायावादी पंडितों के साथ समय-समय पर शास्त्रार्थ कर, उनको निरुत्तर कर, मायावाद का खंडन कर आपने शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद की स्थापना की।
आसुरव्यामोह लीला:
संवत 1587 में 40 दिन का मौन सन्यास धारण कर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन गंगाजी की मध्य-धारा में प्रवेश किया. एक तेजपुंज के रूप में नित्यलीला में प्रवेश किया और गंगाजी की धारा में विलीन हुए। ऐसे श्रीमद्वल्लभाचार्य जी सदैव वैष्णवों के ह्रदय में विराजित रहेंगे और अपनी कृपा-वृष्टि करते रहेंगे।
विस्तृत विवरण: व्यक्तित्व एव कृतित्व
शुद्धाद्वैत दर्शन के प्रथम आचार्य एवं पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य का प्रागट्य भारत के सांस्कृतिक इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है।
आपने भारतीय तत्व चिन्तन को समग्र दृष्टि दी, तथा भारतीय धर्म साधना को नया आयाम दिया। विशेष रूप से आपने पुष्टिमार्गीय धर्म साधना को नया स्वरूप दिया। पुष्टिमार्ग की सहज मान्यता है कि आपका पृथ्वी पर प्रागट्य ईश्वरीय आदेश से दैवी जीवों के उद्धार के लिए हुआ था।
पूर्वज:
महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी के पूर्वज भारत के दक्षिण में स्थित कांकरवाड ग्राम के निवासी थे। इस ग्राम में कलकल निनादिनी कृष्णा नदी बहती है। इस नदी के समीप तीन पर्वत शिव के धाम स्थित हैं जो कालेश्वर, भीमेश्वर एवं श्री शैल नाम से जाने जाते हैं। यह ग्राम आम्र, पलास, निम्ब, इमली, नारिकेलि आदि मनमोहन वृक्षों से आच्छादित है। आपके पूर्वज उच्च कोटि के वेलान्तरीय तैलंग ब्राण थे तथा कृष्ण यजुर्वेदीय शाखाओं का अध्ययन करते थे।आपके पूर्वज उच्च शिक्षा से सम्पन्न थे एवं उनका व्यक्तित्व उदार स्वभाव का था। आपके शिष्य वर्ग में बड़े–बड़े राजा–महाराजा एवं धनाढ्य सेठ साहूकार थे। अत: आपके सभी पूर्वज साधन सम्पन्न एवं बहुत धनाढ्य थे।
100 सोमयज्ञ:
आपके पूर्वजों में यज्ञनारायण दीक्षित साक्षात वेद के अवतार हुए।आपने शुभ मुहुर्त देखकर सोमयज्ञ करने आरम्भ किये तथा अपने जीवन काल में ३२ सोमयज्ञ सम्पन्न किये। यहां से इस कुल में सोमयज्ञ करने की परम्परा आरम्भ हुई। यज्ञनारायण जी दीक्षित के यज्ञ कुण्ड से श्री मदन मोहन जी का स्वरूप प्रगट हुआ था, जो वर्तमान में ’’कामवन‘‘ (मथुरा) में विराजमान है। आपने अपने पाण्डित्य से भैंस से वेद का पाठ कराया।
श्री यज्ञनारायण दीक्षित के पुत्र श्री गंगाधर भट्ट हुए जो शिव रूप थे। आप उच्च कोटि के विद्वान एवं उदार प्रकृति के थे। आपने हजारों शिष्यों को पढाकर विद्यादान किया। आपने अपनी वंश परम्परा को जीवित रखते हुए अपने जीवनकाल में ३० सोमयज्ञ किये। आपके पुत्र श्री गणपति दीक्षित हुए जिन्होंने अपने जीवन काल में २८ सोमयज्ञ सम्पन्न किये। इनके बाद आपके पुत्र श्री वल्लभ दीक्षित हुए जो साक्षात सूर्य रूप थे। आपने १२ कोस में रात को दिन किया था। आपने अपने जीवनकाल में ५ सोमयज्ञ सम्पन्न किये। आपके पुत्र श्री लक्ष्मण भट्ट हुए जिन्होंने अपने जीवनकाल में ५ सोमयज्ञ सम्पन्न किये। इस प्रकार इस कुल में १०० सोमयज्ञ पूर्ण हुए।
प्रागट्य:
आपके कुल में सौवां (१००) सोमयज्ञ पूर्ण होने के उपरान्त श्री लक्ष्मण भट्टजी एवं उनकी पतिव्रता पत्नी श्रीमती इल्लमांगारू जी पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक यह प्रतीक्षा कर रहे थे कि उनके परिवार में अगली संतान के रूप में भगवद् अंश वाले किसी अलौकिक महापुरुष का जन्म होगा। श्री लक्ष्मण भट्टजी कांकरवाड़ (दक्षिण) से काशी में बस गये।
उस समय वि.सं. १५३३ चैत्र शुक्ला नवमी को नभवाणी हुई कि यज्ञपुरुष पूर्ण ब्रह्म आपके यहां पुत्र रूप में प्रकट होंगे। लक्ष्मण भट्टजी ने काशी में अपनी पतिव्रता पत्नी इलम्मागारू के गर्भ में भगवद् आगमन अनुभव किया। उस समय एक बार काशी पर मुसलमान सल्तनत के आक्रमण की प्रबल संभावना हो गई। ऐसी स्थिति में श्री लक्ष्मण भट्ट काशी छोड़कर अपने पैत्रिक गांव कांकरवाड़ के लिए निकल पड़े। यात्रा के परिश्रम एवं थकान के कारण गर्भवती उनकी पत्नी इल्लमांगरू जी को असमय प्रसव वेदना बढती गई। अत: श्री लक्ष्मण भट्टजी को कुछ यात्री दल के सदस्यों सहित चम्पारण (रायपुर) में रुकना पड़ा।
उस समय चम्पारण्य वन में जगह–जगह नवपल्लवित फल–फूल के तरुवन वेली बगीचे उलषित हो रहे थे, कोर कोकिला सुपक्षीगण नाचगान कर आनन्दमग्न हो रहे थे। नदी नद प्रसन्न एवं नभ एवं दिशायें निर्मल थीं। अत: आपके प्रागट्य के समय उस वन में सर्व शुभ गुणों से युक्त वातावरण था।
वि.सं. १५३५ (१४७८ ई.) वैशाख कृष्णा एकादशी को श्रीमती इल्लमांगारूजी को सात मास का गर्भ स्रावित हो गया। उस समय बालक निश्चेष्ट एवं मृतवत था। अत: लक्ष्मण भट्टजी ने वेदना भरे हृदय से उस बालक को निष्प्राण समझकर पास में स्थित शमी वृक्ष के कोतर में पत्तों से ढककर रख दिया।
श्रीमती इल्लमांगारू जी बेहोश थी तथा लक्ष्मण भट्टजी को अचानक नींद आ गयी एवं उन्हें स्वप्न में भगवान के प्रागट्य होने की सूचना मिली। अत: दोनों भगवद् पेृरणा से शमी वृक्ष के पास गये तो देखा कि वृक्ष के चारों ओर आग सुलग रही थी तथा धधकते हुए अग्नि कुण्ड में बालक सुरक्षित था। चम्पारण्य के जंगल में अग्निकुण्ड में बालक प्रभातकालीन सूर्य के समान दैदीप्यमान था। यह बालक एक चरण का अंगूठा मुख में पान कर रस में मन था। गोल मुख, विशाल गाल, घूंघरवाली अलकावली, कमु कण्ठ एवं विशाल हृदय का रूप अति शोभायमान लग रहा था।
वात्सल्यमयी मां:
इल्लमांगारू आग के घेरे के पास गई तो अग्नि ने उन्हें रास्ता दिया। शमी वृक्ष के कोतर में बालक सहज रूप में सुरक्षित देखकर उसे उठाकर हृदय से लगा लिया।
पुष्टिमार्ग में ऐसी मान्यता है कि श्रीमद् वल्लभाचार्य जी का भूतल पर प्रागट्य विशेष रूप से पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के मुखारविन्द स्वरूप हुआ है।
सारस्वत कल्प में बृज की गोपियों ने जिस पुष्टिमार्ग के अनुसरण से भगवान कृष्ण की एकात्मकता एवं सायुज्य प्रीति प्राप्त की उस पुष्टि मार्ग को जगत में प्रगट करने एवं इस मार्ग का प्रचार प्रसार करने हेतु विशेष रूप से आपका भूतल पर प्रागट्य हुआ। आपके प्रागट्य काल में मुगलबादशाओं का राज्य था। अत: राजधर्म इस्लाम था। इस्लाम धर्मावलंबी शासक चाहते थे कि उनकी समग्र प्रजा इस्लाम धर्म स्वीकार कर ले। उधर सनातन धर्मी हिन्दु जनता भी धार्मिक कट्टरता के कारण प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने धर्म के प्रति आदर को अक्षुण्य बनाये रखना चाहती थी। मुगल शासन काल में हिन्दु धर्म की नौका प्राय: जीर्णशीर्ण हो चुकी थी तथा सुयोग्य केवट की आवश्यकता अनुभव कर रही थी जो डूबने से बचा ले। ऐसे नाजुक समय में श्रीमद् वल्लभाचार्य का भूतल में उदय हुआ।
विद्याध्ययन:
श्रीमद् वल्लभाचार्यजी का यज्ञोपवीत संस्कार काशी में वि.सं. १५४३ चैत्र शुक्ला नवमी के दिन हुआ। आपके पिता श्री लक्ष्मण भट्टजी ने इन्हें ब्रह्मविद्या का प्रतीक गायत्री मंत्र का उपदेश दिया और अक्षरारम्भ करवाया। इसके बाद आपको काशी में यति माधवेन्द्र पुरी की पाठशाला में अध्ययन हेतु भेजा गया। आपका अध्ययन पाठशाला में तो चल ही रहा था और धर में भी उन्हें विद्वान पिता से अध्ययन का सहज लाभ मिल रहा था। बचपन से ही आपकी मेधा शक्ति असाधारण तथा स्मरण शक्ति आश्चर्यजनक थी।
आपने बारह वर्ष की अवस्था में ही व्याकरण , वेद, सांख्य, न्यायशास्त्र, वैशेषिक पूर्व एवं उत्तर मीमांसा एवं भारतीय दर्शन शास्त्रका अधिकार पूर्ण अध्ययन कर लिया था। आपका व्यक्तित्व ब्रह्मचारी के रूप में अग्नि के समान देदीप्यमान था। आपकी प्रखर बुद्धि एवं प्रदीप्त प्रज्ञा का आलोक चारों तरफ फैल रहा था। अत: आपके पिता श्री एवं गुरू जी भी उनकी असाधारण तेजस्विता से आश्चर्यचकित एवं प्रभावित थे। आपके पिता श्री लक्ष्मण भट्टजी एक दिन यज्ञशाला में शयन कर रहे थे तब उन्हें तेजस्वी स्वरूप के दर्शन हुए तथा उन्हें संकेत दिया कि मैं वैश्वानर रूप से तुम्हारे पुत्र रूप में प्रगट हुआ हूं। इसी कारण पुष्टिमार्ग में वल्लभाचार्य जी को वैश्वानर रूप में माना जाता है।
क्यूकि भक्तिमार्ग से सम्बन्धित प्राचीन एवं शास्त्रीय ग्रन्थ सभी जगह सहजता से उपलब्ध नहीं थे, अत: आप काशी छौड़कर लक्ष्मण बालाजी (दक्षिण) विराजे तथा वहां उन्होंने भक्तिशास्त्र के उपलब्ध विभिन्न ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया तथा वहां प्रवास के समय अधिकांश समय वहां के पुस्तालयों में व्यतीत किया। आपने वहां आस्तिक, नास्तिक, वैष्णव, शैव, सभी ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने पर पाया कि आस्तिक धर्म ही बृह्मवादहै।
आपके प्रागट्य के समय शंकराचार्य का मायावाद पूर्ण उन्नति के शिखर पर था। श्रीमद् वल्लभाचर्य जी विद्यार्थी काल में ही मायावाद के कमजोर बिन्दुओं एवं कमियों को अपने सहपाठियों एवं अन्य विद्वान मण्डलों में निरूपण करते थे। अन्य विद्वानों से ब्रह्म की चर्चा के बाद आपने अनुभव किया कि अन्य विद्वानों ने ब्रह्मवाद की व्याख्या त्रुटिपूर्ण समझ रखी है।अत: आपने ब्रह्मवाद की विस्तृत एवं वास्तविक व्याख्या करने की आवश्यकता महसूस की एवं इस सम्बध में विभिन्न ग्रन्थों की रचना की।
कनकाभिषेक:
विजयनगर (दक्षिण) में कृष्णदेव राय राजा था। वह पराक्रमी, विद्वानों का समुचित आदर करता था। एक समय राजा ने हिन्दु धर्म के प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों एवं धार्मिक परम्पराओं के गुणावगुण पर गहन चर्चा करने हेतु एक धार्मिक सम्मेलन का आयोजन किया। इस सभा में शास्त्रार्थ का विषय रखा कि वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं गीता प्रस्थानत्रयी का वेदान्त मत द्वैत परक है, या अद्वैत परक है ? राजा के समक्ष विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्थान त्रयी के अनुसार मायावाद की उत्तमता बताई गई।
इस पर राजा ने यह इच्छा प्रगट की कि यह उचित होगा कि भारत के अन्य मतावलम्बी धार्मिक आचार्यों, विद्वान पंडितों को भी आमंत्रित करे एक वृहद धर्म सम्मेलन पुन: बुलाया जावे, जिसमें विस्तृत चर्चा के बाद ही मायावाद की उत्तमता पर अन्तिम निर्णय लिया जावे। अत: राजा के यहां बहुत बड़ा धार्मिक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें भारत के प्रसिद्ध सभी आचार्यों, विद्वान पंडितों को आमंत्रित किया गया।जब श्रीमद् वल्लभाचार्य जी को इस बृहद धार्मिक सम्मेलन के आयोजन की सूचना मिली तो आपने अपने ब्रह्मवाद का पक्ष अन्य विद्वानों के समक्ष प्रतिपादित करने का परम उपयुक्त अवसर समझकर आप इस धार्मिक सम्मेलन में विजयनगर पधारे। वहां धर्म सत्र प्रारम्भ हो चुका था।आपश्री ने जब सभा भवन में प्रवेश किया तो आपके मुख मण्डलकी दिव्य प्रभा से उपस्थित सभी विद्वान प्रभावित हुए। आप श्री के इस धर्म सभा में पधारने से पूर्व तक शंकराचार्य के मायावाद की चर्चा हो चुकी थी, तथा इन विद्वानों ने अपने पक्ष में विजय मान ली थी।
इस धर्म सम्मेलन में राजा द्वारा आप श्री से अपने सिद्धांतों पर बोलने के लिए आग्रह करने पर आपने विनम्रता एवं दृढता से पूछा कि चर्चा किस विषय पर कहां तक हो चुकी है ? जब आपको सूचना मिली कि आपके पधारने से पूर्व तक प्रस्थानत्रयी के अनुसार शंकराचार्य के मायावाद का प्रतिपादन हो चुका है, तथा विद्वानों ने इस सभा को अपने पक्ष में विजयी मान लिया हैं।
श्रीमद् वल्लभाचार्यजी ने इस सम्मेलन में प्रस्थानत्रयी के स्थान पर प्रस्थान चतुष्टयी वेद, बह्म्रसूत्र, गीत एवं भागवत की मान्यता उपस्थिति करके ब्रह्मवाद का प्रतिपादन किया तथा मायावाद का खण्डन किया। इस सम्मेलन में श्रीमद् वल्लभाचार्यजी का मायावाद के अनुयायी विद्वानो में मध्य गम्भीर एवं जोशीला संवाद हुआ।
मायावाद के समर्थक पंडितों ने नवागंतुक आप श्री को प्रथम वार में ही पराजित करने की आशा से प्रश्न पूछा कि ब्रह्म के निर्धर्मक होने के क्या प्रमाण है ? इस पर वल्लभाचार्य जी ने बहुत प्रभावशाली ढंग से उत्तर दिया जिसमें मायावाद की पृष्ठ भूमि एवं उनके सिद्धांतों का सफलता पूर्वक खण्डन किया।इसके अतिरिक्त अन्य आचार्य रामानुजाचार्य माधवाचार्य, निम्बार्काचार्य के सिद्धांतों को भी त्रुटि पूर्ण बताकर उनका खण्डन किया,तथा ब्रह्मवाद प्रतिपादित किया। वहां उपस्थित अन्य विद्धान आचार्यों के लिए ब्रह्मवाद का सिद्धांत बिल्कुल नया था । आपने उनके समक्ष सशक्त तर्क रखकर दृढता पूर्वक शुद्धात्दैत वाद का प्रतिपादन किया तथा केवलाद्वैत, विशिष्ठाद्वैत आदि अन्य वादों का भी खण्डन किया आपने वेदोपनिषद, ब्रह्मसूत्र एवं गीता के साथ श्रीमद् भागवत् को सम्मिलित कर प्रस्थान चतुष्टयी की मान्यता उपस्थिति की। आपने श्रीमद् भागवत की समाधि भाषा को प्रमाणरूप से स्वीकार करने के सबल शास्त्रीय आधार प्रस्तुत किये। आप श्री ने इस सम्मेलन में ब्रह्म का स्वरूप, विरुद्धधर्माश्रयत्व, जीव का अंशत्व, जगत का सत्यत्व प्रतिवादित किया तथा ब्रह्मवाद को शास्त्रों के प्रमाणों के आधार पर सुस्पष्ट किया।
आप श्री के अकाट्य तथ्यों के सामने अन्य कोई विद्वान पंडित बोल नहीं सका तथा अन्य सभी विद्वानों के मुंह से अनायास चारों तरफ आपकी प्रसंशा प्रस्फुरित होने लगी। राजा कृष्णदेवराय बहुत प्रभावित हुए तथा अन्य विद्वानों ने भी वल्लभाचार्य की विजय निर्विरोध स्वीकार कर ली। आप श्री की यह विजय महान थी।अन्य सभी आचार्यों ने आपकी प्रभुता स्वीकार कर ली थी।
राजा ने आप श्री का कनकाभिषेक का विशाल उत्सव आयोजित किया जिसमें आपको एक सौ मन स्वर्ण मुद्रा भेंट की तथा आप श्री को ’’महाप्रभु’’ की उपाधि से विभूषित किया।आप श्री ने इन स्वर्ण मुद्राओं में से केवल सात स्वर्ण मुद्रा ग्रहण करके त्याग एवं उदारता का परिचय दिया। इन स्वर्ण मुद्रिकाओं से आभूषण बनवाकर ठाकुरजी को अर्पण किये। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार उस समय आपकी उम्र ३० वर्ष की थी।
जगन्नाथपुरी की धर्म सभा: श्रीमद् वल्लभाचार्य ने विद्यानगर में रहकर पर्याप्त अध्ययन कर लिया था।अब वे देश दर्शन एवं विद्वानों और संतों से शास्त्र चर्चा करने के इच्छुक थे। इधर उनकी माताजी ने तीर्थाटन करने की इच्छा प्रकट करी। अत: श्री वल्ल्भाचार्यजी विजयनगर से यात्रा पर निकले साथ में उनकी माताजी एवं विश्वास पात्र सेवक कृष्ण दास मेधन थे। सर्व प्रथम आप अपनी पितृभूमि कांकरवाड़ पधारे वहां से आपने जगन्नाथपुरी (पुरुषोत्तम क्षेत्र) की ओर प्रस्थान किया। उस समय उडीसा में हिन्दु राजा राज करते थे। तत्कालीन राजा की धर्म चर्चा में गहरी रुचि थी। जिस समय श्रीमद् वल्लभाचार्य जी जगन्नाथजी के दर्शनके लिए मंदिर में पधारे उस समय वहां धर्म सभा जुड़ी हुई थी, राजा स्वयं उपस्थित था और विभिन्न सम्प्रदायों के विद्वान शास्त्रों के आधार पर निम्नांकित चार प्रश्नों पर चर्चा कर रहे थे:- १. मुख्य शास्त्र कौनसा है ? २. मुख्य देव कौन है ? ३. मुख्य मंत्र क्या है ? और ४. मुख्य कार्य क्या है ?
उस सभा में विभिन्न मतों के उत्कृष्ट विद्वान वहां उपस्थित थे और एक सप्ताह से इन प्रश्नों के समाधान के लिए अपने–अपने मत प्रस्तुत कर रहे थे किन्तु कोई भी सर्वमान्य समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका था।उसी समय श्री वल्लभाचार्य जी मंदिर में पहुंचे। आप असाधारण ज्ञान के कारण परिचितों में ’’बाल सरस्वती’’ भी कहे जाते थे। श्री वल्लभाचार्य जी कृष्ण तीर्थ गौर के साथ विद्वानों की धर्म सभा में जाकर बैठ गये। आपने प्रस्तुत प्रश्नों पर विभिन्न विद्वानों के मतों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की। विद्वत् सभा में कोई अन्तिम निर्णय न हो पाने के कारण अनिर्णय की स्थिति में सभा विसर्जन हो जाने की प्रबल सम्भावना हो गई थी। इस पर श्री वल्लभाचार्य जी ने राजा से अनुमति लेकर धर्म सभा में शास्त्रीय मत प्रस्तुत किया।
आपका यह प्रयास राजा एवं विद्वानों के लिए कौतुहल का विषय बन गया।इस धर्म सभा में आपने भगवद् प्रेरणा से चारों प्रश्नों का शास्त्र सम्मत भाव प्रकट किया फिर भी अपनी विद्वता का किंचित भी अहंकार नहीं दर्शाया। वहां उपस्थित कुछ हठधर्मी पंडित व्यक्ति श्री वल्लभ के शास्त्र सम्मत निष्कर्ष के लिए प्रमाण चाहते थे। अन्त में यह निश्चय किया गय कि भगवान पुरुषोत्तम श्री जगन्नाथजी के मन्दिर में कागज दवात रख कर पट बंद कर दिये जायें ताकि उनका प्रबोधन प्राप्त हो सके। जब थोड़ी देर बाद मंदिर के पट खोले गये तब समाधान स्वरूप निम्नलिखित श्लोक लिखा हुआ पाया गया –
“एकं शास्त्रं देवकीपुत्रम् गीतमेको देवो देवकी पुत्रम्।
मंत्रोप्येकतस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा।।”
१. देवकी पुत्र भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गायी गई श्रीमद् भगवद्गीता ही एक मात्र शास्त्र है।
२. देवकी नन्दन श्रीकृष्ण ही एक मात्र देव है।
३. उन भगवान कृष्ण का नाम ही मंत्र है, और
४. भगवान कृष्ण की सेवा ही एक मात्र कर्म है।
भगवान ने विद्वानो के संदेह निवृति के लिए ये उद्गार व्यक्त किये थे। अत: भगवान पुरुषोत्तम की इस स्थापना का विरोध कौन कर सकते थे ? अत: सारी सभा श्री वल्लभाचार्य जी के मत से सहमत हो गई।
पृथ्वी परिक्रमा पद यात्रा: श्रीमद् वल्लभाचार्यजी ने अपने जीवन काल में हिमालय से कन्या कुमारी एवं द्वारका से जगन्नाथधाम तक तीन बार पृथ्वी परिक्रमा के रूप में पद यात्रा द्वारा भारत भ्रमण किया। इस प्रकार आपको तीन पृथ्वी प्रदिक्षणा सम्पूर्ण करने में उन्नीस वर्ष का समय लगा । आप श्री ने प्रथम यात्रा वि.सं. १५४९ (१४९२ ई.) वैशाख कृष्ण को प्रारम्भ की जो सात वर्ष में पूर्ण हुई। इसी प्रकार दूसरी एवं तीसरी यात्रा भी छ:–छ: वर्ष में पूरी हुई। आपने भारत वर्ष में धर्म क्रांति एवं जनता में दैवी संस्कार जागृत करने के प्रयोजनार्थ यात्राऐं की। वेदरूपी कल्प वृक्ष के मधुर फल श्रीमद् भागवत् का अमृत रस पिलाकर जन जीवन में अभिनव चेतना एपं प्राण शक्ति का संचार करना आपकी यात्राओं का मुख्य प्रयोजन रहा।
यात्रा प्रवास के समय भी आपका प्रवचन एवं लेखन कार्य अनवरत चलता रहता था।भारत वर्ष में पद यात्रा के समय जिन स्थलों में आपने प्रवास किया वे ८४ बैठकों के नाम से प्रसिद्ध हैं। सांप्रदायिक गाथा के अनुसार आप श्री जब यात्रा कर रहे थे तब आपको वि.सं. १५४९ (१४१२ ई.) में फाल्गुन सुदी ११ को झारखण्ड में ’’श्रीनाथजी’’ का विशेष आमंत्रण मिला। अत: आप तत्काल ब्रज पधारे। मथुरा के निकट गोवर्धन पर्वत पर ’’श्रीनाथजी’’ के स्वरूप का प्रागट्य हो चुका था।
अत: वहां उनका मंदिर स्थापित किया।इसी मंदिर में आप श्री ने पुष्टिमार्गीय सेवा पद्धति का प्रादुर्भाव किया। ब्रज प्रवास के समय आप श्री को वि.सं. १५५० (१४१३ ई.) श्रावण सुदी ११ को श्री कृष्ण भगवान का संदेश मिला कि पुष्टिमार्गीय सांप्रदायिक सेवा हेतु जीवों को मंत्र उपदेश द्वारा दीक्षित कर वैष्णव सृष्टि बढावें। अत: आपने प्रथमत: ब्रह्म संबंधक उपदेश मंत्र द्वारा श्री दामोदरदास हरसानीजी को दीक्षित किया तत्पश्चात् अनेक दैवी जीवों को दीक्षित कर वैष्णव सृष्टिका अभिवर्धन किया। अत: पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के आदि देव ’’श्रीनाथजी’’ हैं तथा ’’आदि गुरू’’ श्रीमद् वल्लभाचार्य जी हैं।
ब्रज यात्रा:
श्रीमद् वल्लभाचार्य महाप्रभु ने वि.सं.१५६३ (१५०६ ई.) भाद्रपद कृष्ण द्वादशी शरद् ऋतु में मथुरा के विश्रान्ति घाट में यमुना जी में स्नान कर के प्रथम ८४ कोस ब्रजयात्रा का नियम लिया था। आप श्री ने ब्रज यात्रा के समय जिन स्थलों में प्रवास कर उनका महात्म्य प्रगट किया उसके कुछ अंशों का भावार्थ दिया जा रहा है।
आप मथुरा से मधुवन पधारे। वहां आपने श्रीमद् भागवत सप्ताह किया। वहां बज्रनाभजी द्वारा स्थापित ’मधुबनिया‘ ठाकुर है जो नित्य आपकी कथा सुनने आते थे। तत्पश्चात् आप ’कमोदवन‘ पधारे। यहां आपने सामवेद की कथा के अनुसार ब्रज का महात्म्य बताया। ऐसी मान्यता है कि एक समय श्री ठाकुर जी एवं श्री स्वामिनी जी शरद् ऋतु में ’कमोदवन‘ पधारे। ठाकुर जी ने स्वामिनी जी के आग्रह से वहां कमोद एवं कमोदिनी का वन प्रगट किया एवं जहां पर दो कुण्ड सिद्ध हुए।
फिर आप सांतनु कुण्ड पधारे। वहां ध्रुव कुण्ड में स्नान किया तथा कृष्ण कुण्ड के उत्तर दिशा में बड़ के वृक्ष के नीचे प्रवास किया। वहां से आप ’बहुलावन‘ पधारे यहां आपने श्रीमद् भागवत पारायण किया। आपने ’बहुलावन’ में वहां के हाकिम को चमत्कार दिखाकर उसके द्वारा बन्द कराई गई गौ–पूजा पुन: चालू करायी। वहां से आप ’तोषवन‘ एवं जिखिन गांव पधारे। यहां ’बलदेव जी’ का प्राचीन मंदिर है। वहां उनके दर्शन किये। इसी स्थान पर बलदेव जी ने शंख चूण राक्षस का वध किया था। वहां से ’मुखराई’ पधारे फिर ’श्री कुण्ड’ पधारे, वहां से ’राधा कुण्ड‘ होते हुए ’गोवर्धन‘ पधारे। तत्पश्चात् ’परासोली‘ होते हुए ’आन्योर’ पधारे फिर ’गोविन्द कुण्ड’ पधारे वहां से ’सुन्दर सिला’ होते हुए ’श्री गिरिराज जी’ पधारे फिर ’कामवन’ पधारे वहां से ’गहवर वन’ फिर ’संकेत वन’ होते हुए ’नन्दगांव’ पधारे। वहां से ’कोकिला वन’ फिर ’भण्डीर वन’ से ’मानसरोवर’ पधारे।
इस प्रकार श्री वल्लभाचार्य महाप्रभुजी ने अपनी प्रथम ब्रज यात्रा के दौरान जिन स्थलों पर प्रवास किये वे ही स्थल ब्रज में श्री महाप्रभु की बैठक प्रसिद्ध हुई है।
मुगल बादशाह:
यह संतोष का विषय है कि भारत वर्ष में कुछ मुगल बादशाह कट्टर इस्लामिक होते हुए भी वैष्णव संप्रदाय के प्रमुख अनुयायी रहे। इनकी सांप्रदायिक क्रियाकलाप सर्वश्रेष्ठ श्रेणी में मानी गयी। इन पर वैष्णव संप्रदाय का प्रचुर प्रभाव हुआ। अत: मुसलमान एवं अछूत वर्ग के व्यक्तियों ने भी उस समय अपना नाम वैष्णव संप्रदाय की श्रेणी में सम्मिलित कराया।
उस समय दिल्ली के बादशाह सिकन्दर लोदी थे। बादशाह की तरफ से इस्लाम धर्म के प्रचार–प्रसार के प्रयोजनार्थ अनेक प्रकार का साहित्य बांटा जाता था। बादशाह ने जब वल्लभाचार्य जी का पाण्डित्य सुना तो उनसे मिलने की इच्छा प्रगट की तथा अपने निजी सचिव सहित आप श्री से मिलने आये। बादशाह आपके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपना किरीट युक्त मस्तक झुकाया। बादशाह ने दिल्ली आकर अपने निजी सर्वश्रेष्ठ चित्र कलाकार ’होनहार’ को अडेल भेजा तथा महाप्रभु जी का रंगीन चित्र बनवाया।
मुसलमान कलाकार द्वारा महाप्रभु जी का बहुत सुन्दर रंगीन चित्र बना,जो काफी वर्ष तक बादशाहों के शाही महलों में प्रदर्शित रहा। किशनगढ के महाराजा रूपसिंहजी द्वारा अफगानिस्तान पर विजय प्राप्त करने पर बादशाह ने यह चित्र इन्हें ईनाम स्वरूप दिया। यह मूल चित्र आज तक किशनगढ के राजदरबार में सुरक्षित है, तथा उसकी नित्य सेवा होती है। बादशाह सिकन्दर लोदी सच्चा वैष्णव भक्त हुआ जिसने अपने महल में महाप्रभुजी का चित्र संग्रहित किया।
किया। मुगल सम्राट के संस्थापक बादशाह अकबर, उसका पुत्र हुमायूं भी वैष्णव संप्रदाय से संबद्ध रहे। मुगल बादशाह अकबर सर्वश्रेष्ठ वैष्णव हुआ। अकबर बादशाह इस सम्प्रदाय से इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने मस्तक पर वैष्णव तिलक एवं गले में तुलसी माला धारण की। बादशाह अलीखां व उसका वजीर हेमू बनिया वैष्णव थे। बादशाह जहांगीर भी उस संप्रदाय का प्रशंसक हुआ है।इसके मुख्य मंत्री मोहनजी भाई वैष्णव थे। प्रसिद्ध बेगम नूरजहां एवं ताज बीबी भी वैष्णव संप्रदाय के अनुयायी भक्त हुए हैं।
ग्रन्थ रचना:
ऐसी मान्यता है कि महाप्रभुजी ने अपने जीवन काल में ८४ ग्रन्थों की रचना की थी,मगर आप द्वारा विरचित सम्पूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है या तो वे नष्ट हो गये है अथवा अभी तक किसी के पास छिपे हुए हैं। आप द्वारा विरचित उपलब्ध कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है अणुभाष्य : आप द्वारा विरचित उपलब्ध ग्रन्थों में अणुभाष्य प्रथम श्रेणी का ग्रन्थ है। श्रीमद् वल्लभाचार्यजी ने वेदव्यास प्रणीत ब्रह्मसूत्र पर विभिन्न विद्वानों शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य द्वारा किये गये विभिन्न भाष्य एवं उपलब्ध टीकाओं का गहन अध्ययन किया एवं अनुभव किया कि इन भाष्यों में ’ब्रह्म सूत्र’ के वास्तविक भाव की अभिव्यक्ति करने में न्याय नहीं किया गया है।
अत: आपने वेदव्यास प्रणीत बृह्मसूत्र पर ’’अणुभाष्य’’ नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें ब्रह्मसूत्र की विस्तृत, ठोस एवं विवेचनपूर्ण व्याख्या की है।इसके द्वारा केवल ब्रह्मवाद का ही निरूपण है। हिन्दु शास्त्र एवं हिन्दु दर्शन के जिज्ञाषुओं के लिए ’अणुभाष्य’ विश्वसनीय भाष्य है। ऐसी मान्यता है कि ’बृह्मसूत्र’ पर अब तक कोई भी अन्य आचार्य सफलता पूर्वक एवं सुस्पष्ट ऐसा टीका नहीं कर सका है।
पत्रावलम्बन:
काशी प्रवास के समय आये दिन वेदान्ती एवं शैव मत के पंडितों से वल्लभाचार्य जी का शास्त्रीय संघर्ष हो जाया करता था।अत: आपने ’पत्रावलम्बन’ ग्रन्थ की रचना की तथा इसे ’काशी विश्वनाथ’ मंदिर में प्रदर्शित करके विरोधियों की जिज्ञासाओं को शांत किया तथा शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। इस ग्रन्थ में महाप्रभुजी ने वेद के पूर्व मीमांसा एवं उत्तर मीमांसा का समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।दोंनों वादों में एक वाक्यता प्रतिपादित करते हुए मायावाद का निराकरण किया एवं ब्रह्मवाद सिद्ध किया।
तत्वदीप निबंध:
आपश्री द्वारा रचित ’तत्वदीप’ ग्रन्थ में तीन भाग है –
१. शास्त्रार्थ प्रकरण– इसमें श्रीमद् गीता पर भाष्य है।
२. भागवतार्थ प्रकरण – इसमें श्रीमद् भागवत की सुन्दर व्याख्या वर्णित है।
३. सर्व निर्णय प्रकरण – इस भाग में अन्य सभी दार्शनिक मतों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
पुरुषोत्तम सहस्त्रनाम:
आप श्री के बड़े लाल जी श्री गोपीनाथजी महाराज प्रतिदिन सम्पूर्ण भागवत का पूरा पाठ करने के पश्चात् ही दैनिक प्रसाद अरोगते थे। इसमें उन्हें दो–तीन दिन का समय लग जाता था। अत: उनके प्रतिदिन के आहार की दिनचर्या अव्यवस्थित हो जाती थी।अत: महाप्रभुजी ने उनकी इस समस्या के समाधान हेतु श्रीमद् भागवत् के द्वादश स्कंध में वर्णित लीलाओं का भाव बताते हुए ’श्रीपुरुषोत्तम सहस्त्रनाम’ की रचना की है। इसके पाठ करने से सम्पूर्ण भागवत के पाठ का फल मिलता है। इस ग्रन्थ में १००० नाम श्रीमद् भागवत के हैं तथा ७५ नाम अन्य ग्रन्थों के आधार पर वर्णित हैं।
षोडश ग्रन्थ:
आपश्री द्वारा विरचित ’षोडश ग्रन्थ’ में पुष्टिमार्ग के सिद्धांत एवं वैष्णवों के कतँव्यधर्मी का सुन्दर विवेचन है।
सुबोधिनी:
आप श्री ने श्रीमद् भागवत पर ’’सुबोधिनी’’ नाम की टीका की है।इसमें आपने श्रीमद् भागवत के प्रत्येक श्लोक के पद, वाक्य एवं अक्षर का विश्लेषणात्मक एवं अधिकारपूर्ण भाष्य किया है। इसमें भागवत का गूढ रहस्य बताया गया है। आपके इस ग्रन्थ में छोटे–छोटे वाक्यों की रचना अति सूक्ष्म है मगर भाव अति विस्तृत हैं। इस ग्रन्थ में महाप्रभु जी ने श्रीमद् भागवत की अधिकारपूर्ण एवं विश्लेषणात्मक व्याख्या की है।
प्रासंगिक गाथा के अनुसार भारत भ्रमण में पद यात्रा के समय ’’ब्रह्मसूत्र’’ के प्रणेता वेदव्यास जी से बद्रीनाथ पर्वत की गुफा में आपका मिलाप हुआ। आप श्री ने वेदव्यास जी को श्रीमद् भागवत की टीका ’’सुबोधिनी’’ एवं बृह्मसूत्र की टीका ’’अणुभाष्य’’ बताये जिनमें मायावाद एवं अन्य वादों का खण्डन कर ब्रह्मवाद का प्रवर्तन किया गया है। वेदव्यास जी ने आप के इस कार्य की बहुत प्रशंसा की तथा उन्हें इन सिद्धांतों का विस्तृत प्रचार–प्रसार एवं शिक्षा देने का निर्देश दिया।
गृहस्थी जीवन:
श्रीमद् वल्लभाचार्यजी ने भारत वर्ष में भागवत धर्म एवं पुष्टिमार्ग के प्रचार का कार्य पूरा करने के बाद विवाह किया था। आपको दूसरी प्रदिक्षणा के समय भगवान पाण्डुरंग विट्ठल द्वारा विवाह करने की आज्ञा दी गई ताकि इस धर्म के प्रचार–प्रसार हेतु दैवी संतति बढे तथा आचार्य पद सुरक्षित बना रहे। दक्षिण काशी निवासी मधुमंगल की ललित सुकन्या महालक्ष्मी जी के साथ आपका विवाह हुआ। आपके वि.सं.१५६७ (१५१० ई.) अश्विनी कृष्णा १२ को प्रथम पुत्र श्री गोपीनाथ जी का जन्म हुआ एवं वि.सं.१५७२ (१५१५ ई.) पोष कृष्णा नवमी को द्वितीय पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी का जन्म हुआ। वर्तमान में विट्ठलनाथजी महाराज के वंशज ही पुष्टिमार्गीय आचार्य (महाराज) हैं।
आप श्री ने विवाह के पश्चात् ही अधिकतर ग्रन्थ लेखन का कार्य पूरा किया। आपने अपने जीवन के उत्तरकाल में ’अडेल’ (प्रयाग) में स्थाई निवास किया। वहां श्रीकृष्ण की सेवा पूर्ण हृदय से करते थे।ठाकुर जी की सेवा के बाद जो भी समय मिलता उसमें ग्रन्थ लेखन किया करते थे। इस प्रकार आपने सम्पूर्ण जीवन बिना किसी दिखावा, प्रदर्शन एवं प्रचार के विशिष्ठ आदर्श रूप में यापन किया।
यह निश्चित तथ्य है कि आपश्री ने धर्म का वास्तविक मर्म, विद्वानों एवं साधारण जन में प्रचलित करने एवं उसका प्रचार–प्रसार के लिय यथासाध्य प्रयास किये एवं अनेक अनुयायी बनाये।
भक्तिमार्गीय सन्यास:
आपश्री ने ५२ वर्ष की अवस्था में भक्तिमार्गीय सन्यास ग्रहण किया। घर ग्रहस्थ का सर्वथा त्याग कर अन्तिम समय आप वाराणसी पधारे। तब तक वहां विरोधी पण्डितों के विरोधी स्वर शांत हो चुके थे। आपके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनेक विद्वान पण्डितों ने आपको मस्तक नवाया। कुछ समय बाद आपश्री ने मौनव्रत धारण कर लिया तथा अपना ध्यान भगवान में केन्द्रित किया। मौनव्रत के समय इनके सुपुत्र विट्ठलेश्वर जी अन्य सांप्रदायिक भक्तों के साथ आये एवं अन्तिम निर्देश देने की प्रार्थनाकी। श्री महाप्रभुजी ने साढे तीन श्लोक में शिक्षा दी जो ’’शिक्षा श्लोकार्थत्रयी’’ के नाम से है।
श्रीगोपीनाथप्रभुचरण एवं श्रीविट्ठलनाथप्रभुचरण को अन्तिम उपदेश रेती पर अंगुली से लिखकर जो दिया उसे शिक्षाश्लोकी कहते हैं। वे ‘सार्धत्रय’ अर्थात् साढ़े तीन श्लोक हैं-
यदा बहिर्मुखा यूयं भविष्यथ कथंचन।
तदा कालप्रवाहस्था देहचित्तादयोऽप्युत।।1।।
सर्वथा भक्षयिष्यन्ति युष्मानिति मतिर्मम।
न लौकिकः प्रभुः कृष्णो मनुते नैव लौकिकम् ।।2।।
भावस्तत्राप्य स्मदीयः सर्वस्वश्चैहिकश्च सः।
परलोकश्च तेनायं सर्वभावेन सर्वथा ।।3।।
सेव्यः स एव गोपीशो विधास्यत्यखिलं हि नः।।31/2।।
जिस समय श्री आचार्यचरण ने इन ‘साढ़े तीन’ श्लोक लिखकर कहे तब ही वहां पर साक्षात् भगवान् प्रकट हुए और श्री…..प्रभु ने डेढ़ श्लोक कहकर श्रीआचार्यजी द्वारा उपदिष्ट शिक्षा श्लोको को पूर्ण किया जो निम्नलिखित है-
मयि चेदस्ति विश्वासः श्रीगोपीजनवल्लभे ।।4।।
तदा कृतार्था यूयं हि शोचनीयं न कर्हिचित् ।
मुक्तिर्हित्वाऽन्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति।। 5।।
भावार्थ:
‘यदि किसी भी प्रकार तुम भगवान से विमुख हो जाओगे तो काल-प्रवाह में स्थित देह तथा चित्त आदि तुन्हें पूरी तरह खा जायेंगे। यह मेरा दृढ़ मत है। भगवान श्रीकृष्ण को लौकिक मत मानना। भगवान को किसी लौकिक वस्तु की कोई आवश्यकता नहीं है। सब कुछ भगवान ही है। हमारा लोक और परलोक भी उन्हीं से है। मन में यह भाव बनाये रखना चाहिए। इस भाव को मन में स्थिर कर सर्वभाव से गोपीश्वर प्रभु श्रीकृष्णचन्द्र की सेवा करनी चाहिए। वे ही तुम्हारे लिए सब कुछ करेंगे।’
कुछ समय पश्चात् वि.सं.१५८७ (१५३० ई.) आषाढ शुक्ला द्वितीया को मध्यान्ह समय आसुर व्यामोह लीला द्वारा आपका शरीर वाराणसी के हनुमान घाट पर गंगाजी के जल प्रवाह में अन्तर्हित हो गया तथा उस स्थान से एक दिव्य ज्योति निकली जिसके दर्शन वहां उपस्थित लोगों ने किये।
आपका सम्पूर्ण जीवन वैराग्य एवं त्यागपरक रहा, तथा अपने अनुयायियों को इसी की शिक्षा दी। अत: आप एक क्रांतिकारी धर्माचार्य एवं युगदृष्टा महापुरुष हुए है ||
श्रीवल्लभाघीश की जय हो|