सभी पुष्टिमार्गीय वैष्णवजन को महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य के प्राकट्य उत्सव की ख़ूब ख़ूब बधाई
युगदृष्टा जगद्गुरु श्रीमद्वल्लभाचार्य महाप्रभु संक्षिप्त विवरण-
प्राकट्य : संवत 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी (चम्पारण)
माता-पिता : श्री ईलम्मागारू जी – श्री लक्ष्मणभट्ट जी
मूल निवासी : कांकरवाड़ (आंध्रप्रदेश)
उपनयन : संवत 1540, चैत्र शुक्ल नवमी (काशी)
अध्ययन : श्री विष्णुचित्त जी, पिताजी श्री लक्ष्मणभट्ट जी तथा श्री माधवेन्द्र यतिजी के पास शास्त्रों का अध्ययन किया.
विवाह : संवत 1558 आषाढ़ शुक्ल पंचमी श्री महालक्ष्मी जी के साथ.
कनकाभिषेक : विद्यानगर में विद्वानों की धर्मसभा में शास्त्रार्थ में दिग्विजय प्राप्त की तब वहां के राजा कृष्णदेव राय ने आपका कनकाभिषेक किया एवं विद्वानों ने आपका आचार्यतिलक किया.
ब्रह्मसम्बन्ध की आज्ञा : संवत 1550 की श्रावण शुक्ल एकादशी की मध्यरात्रि को गोकुल के ठकुरानी घाट पर प्रभु ने साक्षात् दर्शन देकर जीवों को ब्रह्म-सम्बन्ध देने की आज्ञा की जिसके अनुरूप आपने सर्वप्रथम श्री दामोदरदास हरसानी को ब्रह्म-सम्बन्ध देकर ब्रह्म-सम्बन्ध दीक्षा का आरम्भ किया.दैवी-जीवों को शरण में लेकर उनका उद्धार किया.
सेवाप्रकार : श्री गोवर्धनधरण प्रभु की आज्ञानुसार उनको श्री गिरिराज जी से बाहर पधराकर मंदिर में प्रतिष्ठापित कर उनकी सेवा का प्रकार प्रारंभ किया, सेवा की रीति एवं प्रीति बताई.
भारत परिक्रमा : समस्त दैवी-जीवों के उद्धार हेतु आपने सम्पूर्ण भारतवर्ष की तीन परिक्रमाएँ की. प्रथम संवत 1553 में, दूसरी संवत 1558 में एवं तीसरी संवत 1566 में पूर्ण हुई.
गृहस्थाश्रम प्रारंभ किया. पुत्र : श्री गोपीनाथ जी (प्राकट्य संवत 1567), श्री विट्ठलनाथ जी (प्राकट्य संवत 1572)
बैठक जी : सम्पूर्ण भारतवर्ष में आपकी 84 बैठकें प्रसिद्द हैं.
ग्रन्थ-साहित्य : ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, भागवत की सुबोधिनी टीका, तत्वार्थदीप निबंध, पूर्वमीमांसा-भाष्य, गायत्रीभाष्य, पत्रावलंबन, पुरुषोत्तम-सहस्त्रनाम, दशमस्कन्ध अनुक्रमणिका, त्रिविध नामावली, शिक्षाश्लोका:, षोडशग्रंथ (यमुनाष्टक से सेवाफल), सेवाफल विवरण, भगवत पीठिका, न्यासादेश, प्रेमामृत, मधुराष्टक, परिवृढाष्टक, नंद-कुमाराष्टक, कृष्णाष्टक, गोपीजन वल्लभाष्टक आदि कई दिव्य एवं सुन्दर ग्रंथों की आपने रचना की. ब्रह्मवाद की स्थापना :मायावादी पंडितों के साथ समय-समय पर शास्त्रार्थ कर, उनको निरुत्तर कर, मायावाद का खंडन कर आपने शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद की स्थापना की.
आसुरव्यामोह लीला : संवत 1587 में 40 दिन का मौन सन्यास धारण कर आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन गंगाजी की मध्य-धारा में प्रवेश किया. एक तेजपुंज के रूप में नित्यलीला में प्रवेश किया और गंगाजी की धारा में विलीन हुए. ऐसे श्रीमद्वल्लभाचार्य जी सदैव वैष्णवों के ह्रदय में विराजित रहेंगे और अपनी कृपा-वृष्टि करते रहेंगे.