आज वैशाख कृष्ण एकादशी गिरिराजजी पर श्रीनाथजी के मुखारविंद का प्राकट्य हुआ था
अब्जाश्र्वतु: सहस्त्राणि तथा पंचशतानि च l
गतास्तत्र कलेरादौ क्षेत्रे श्रृंगारमंडले ll
गिरिराज गुहामध्यात् सर्वेषां पश्यंता नृप l
स्वतः सिद्धं च तद्रूपं हरे: प्रादुर्भविष्यति ll
श्रीनाथं देवदमनं च वदिष्यन्ति सज्जना: ll
अर्थात भगवान कृष्ण ने जिस स्वरुप में (बायाँ हाथ उठा) गिरिराज पर्वत उठाया था वह स्वरुप वर्तमान में श्रृंगार-मंडल (व्रज) में गुप्त रूप में विराजित है. कलियुग के 4500 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात श्रीहरि का स्वयंसिद्ध स्वरुप श्रृंगार-मंडल (व्रज) में श्री गिरिराजजी की कन्दरा में स्वतः प्रकट होगा एवं इस स्वरुप को सज्जन व्यक्ति देव-दमन कह कर पुकारेंगे.
महर्षि गर्गाचार्य जी की भविष्यवाणी अक्षरक्ष सत्य निकली.
विक्रम संवत 1466 की श्रावण कृष्ण तृतीया के दिन सूर्योदय के समय श्री गोवर्धननाथ का प्राकट्य श्री गिरिराज पर्वत (गोवर्धन) पर हुआ. यह वही स्वरूप था जिस स्वरूप से प्रभु श्री कृष्ण ने इन्द्र का मान-मर्दन करने के लिए व्रजवासियों की पूजा स्वीकार की और अन्नकूट की सामग्री आरोगी थी.
श्री गोवर्धननाथजी के सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य एक साथ नहीं हुआ था पहले वाम भुजा का प्राकट्य हुआ, फिर मुखारविन्द का और कुछ समय पश्चात सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ.
सर्वप्रथम विक्रम संवत 1466 की श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी) के दिन जब एक व्रजवासी अपनी खोई हुई गाय को खोजने श्री गिरिराज पर्वत पर गया तब उसे श्री गोवर्द्धनाथजी की ऊपर उठी हुई वाम भुजा के दर्शन हुए उसने अन्य ब्रजवासियों को बुलाकर ऊर्ध्व वाम भुजा के दर्शन करवाये.
तब व्रजवासियों ने उनकी वाम भुजा का पूजन किया था. इसके बाद लगभग 70 वर्षों तक ब्रजवासी इस ऊर्ध्व भुजा को दूध से स्नान करवाते, पूजा करते, भोग धरते और मान्यता करते थे.
विक्रम संवत 1535 में वैशाख कृष्ण एकादशी को मध्यान्ह एक अलौकिक घटना घटित हुई.
श्री गिरिराज पर्वत के पास आन्यौर गाँव के सद्दू पाण्डे की कई गायों में से एक घूमर नामक गाय जो नंदरायजी के गौवंश की थी. वह प्रतिदिन तीसरे प्रहर उस स्थान पर पहुँच जाती थी जहाँ श्री गोवर्धननाथजी की वाम भुजा का प्रकट्य हुआ था.
वहाँ एक छेद था जिसमें वह अपने थनों से दूध की धार झराकर लौट आती थी. सदू पाण्डे को संदेह हुआ कि कोई व्यक्ति दोपहर में मेरी धूमर गाय का दूध दुह लेता है इसलिए यह गाय संध्या समय दूध नहीं देती है.
एक दिन उसने गाय के पीछे जाकर सच्चाई जाननी चाही तो उसने देखा कि गाय श्री गिरिराज पर्वत पर एक स्थान पर जाकर खडी हो गयी और उसके थनों से दूध झरने लगा. सद्दू पाण्डे को आश्चर्य हुआ और उसने निकट जाकर देखा तो उसे श्री गोवर्धननाथजी के मुखारविन्द के दर्शन हुए.
ठीक उसी दिन वहां से सैकड़ो मील दूर चम्पारण्य (छत्तीसगढ़) में श्री वल्लाभाचार्य जी (श्री महाप्रभुजी) का भी प्राकट्य हुआ था.
श्री गोवर्धननाथजी ने स्वयं सद्दू पाण्डे से कहां कि –“मेरा नाम देवदमन है तथा मेरे अन्य नाम इन्द्रदमन और नागदमन भी है.”
उस दिन से ब्रजवासी श्री गोवर्धननाथजी को देवदमन के नाम से जानने लगे. सद्दू पाण्डे की पत्नी भवानी व पुत्री नरों प्रभु को नित्य धूमर गाय का दूध आरोगाने के लिए जाती थी.
विक्रम संवत 1549 फाल्गुन शुक्ल एकादशी गुरूवार के दिन श्री गोवर्धननाथजी ने महाप्रभु श्रीमद वल्लभाचार्य जी को झारखण्ड में आज्ञा दी -“मेरा प्राकट्य गोवर्धन की कन्दरा में हुआ है…पहले वामभुजा का प्राकट्य हुआ था और फिर मुखारविन्द का…अब मेरी इच्छा पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य करने की है…आप शीघ्र व्रज आवें और मेरी सेवा का प्रकार प्रकट करे.”
यह आज्ञा सुनकर श्री वल्लभाचार्य जी जो कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा पर थे अपनी यात्रा की दिशा बदलकर व्रज में गोवर्धन के पास आन्यौर ग्राम पधारे. वहाँ पहुँचकर आपश्री सद्दू पाण्डे के घर के आगे चबूतरे पर विराजे.
श्री वल्लभाचार्य जी के अलौकिक तेज से प्रभावित होकर सद्दू पाण्डे सपरिवार आपश्री के सेवक बने.
सद्दू पाण्डे ने आपश्री को श्रीनाथजी के प्राकट्य की सारी कथा सुनाई. अगले दिन प्रातःकाल ही श्री वल्लभाचार्य जी सद्दू पाण्डे और कुछ व्रजवासियों के साथ श्री गिरिराज जी पर श्रीनाथजी के दर्शनों के लिए चले.
सर्वप्रथम आपने श्री गिरिराज जी को प्रभु का स्वरूप मानकर दण्डवत प्रणाम किया और उनसे आज्ञा लेकर श्री गिरिराज जी पर धीरे-धीरे चढ़ना प्रारम्भ किया.
जब दूर से ही सद्दू पाण्डे ने श्रीनाथजी के प्राकट्य स्थल बताया तब श्री महाप्रभु जी के नेत्रों से हर्ष के अश्रुओं की धारा बह चली. उन्हे ऐसा लग रहा था कि वर्षो से प्रभु के विरह का जो ताप था, वह अब दूर हो रहा है. वो तेज गति से पर्वत पर चढ़ने लगे तभी उन्होंने देखा कि सामने से मोर मुकुट पीताम्बरधारी प्रभु श्रीनाथजी चले आ रहे हैं.
तब तो श्री वल्लभाचार्य जी प्रभु के निकट दौडते हुए से पहुँच गये. उन्हें भू-मंडल पर अपने सर्वस्व जो मिल गये थे.
श्री ठाकुरजी और श्री आचार्यजी दोनो परस्पर अलिंगन में बंध गये. इस अलौकिक झाँकी का दर्शन कर व्रजवासी भी धन्य हो गये.
श्री महाप्रभु जी श्रीनाथजी के दर्शन और आलिंगन पाकर हर्ष-विभोर थे. तभी श्रीनाथजी ने आज्ञा दी –“श्री वल्लभ…यहाँ हमारा मन्दिर सिद्ध करके उसमें हमें पधराओं और हमारी सेवा का प्रकार आरम्भ करवाओं.”
श्री महाप्रभु जी ने हाथ जोड़कर विनती की –“प्रभु….आपकी आज्ञा शिरोधार्य है.”
श्री महाप्रभु ने अविलम्ब एक छोटा-सा घास-फूस का मन्दिर सिद्ध करवाकर ठाकुरजी श्री गोवर्धननाथजी को उसमें पधराया तथा श्री ठाकुरजी को मोरचन्द्रिका युक्त मुकुट एवं गुंजामला का श्रृंगार किया.
आप श्री ने रामदास चौहान को श्रीनाथजी की सेवा करने की आज्ञा दी. उसे आश्वासन दिया कि चिन्ता मत कर स्वयं श्रीनाथजी तुम्हे सेवा प्रकार बता देंगे. बाद में श्री महाप्रभुजी की अनुमति से पूरणमल खत्री ने श्रीनाथजी का विशाल मन्दिर तैयार करवाया तब विक्रम संवत 1576 में वैशाख शुक्ल तीज अक्षय तृतीया को श्रीनाथजी नये मन्दिर पधारे तथा पाटोत्सव हुआ.
तब माधवेन्द्र पुरी तथा कुछ बंगाली ब्राह्मणों को श्रीनाथजी की सेवा का दायित्व सौपा गया.
कुभंनदास संगीत सेवा करने लगे तथा कृष्णदास को अधिकारी बनाया गया. कुछ वर्ष पश्चात श्री महाप्रभु जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री गुसाँई जी ने बंगाली ब्राह्मणों को सेवा से हटाकर नई व्यवस्था की जो वर्तमान तक चली आ रही है.
जय श्री कृष्ण.