सूरदासजी : मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया, उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूं|

नाथद्वारा ( दिव्य शंखनाद ) 2 मई । कवि सूरदास जी हिंदी साहित्य की कृष्ण भक्ति काव्य धारा के प्रमुख कवि हैं। उनका जन्म (हरियाणा) फरीदाबाद के पास साही नामक ग्राम में सन 1478 को हुआ था। कुछ महान विद्वानों के राय के अनुसार कवि सूरदास जी का जन्म आगरा तथा मधुरा के मध्य स्थिति रुनकता गांव में हुआ था । सूरदास जी का जन्म कब हुआ और स्थान के संबंध में विद्वान एकमत नहीं है।
सूरदास जी का जन्म निर्धन सारस्वत ब्राह्मण पं0 रामदास के यहाँ हुआ था। सूरदास जी के पिता गायक थे । सूरदास जी की माता का नाम जमुनादास था । सूरदास जी की वाणी बहुत ही ज्यादा मधुर थी। वह भाव-विभोर होकर कृष्ण लीला का वर्णन व गायन करते थे।
कृष्ण भक्तों में सूरदास का नाम सबसे ऊपर है। कहा जाता है कि वह जन्म से ही देख नहीं सकते थे। मगर, सूरदास ने बिना आंखों के भगवान की जो लीलाएं देखी और कही, उतना सुंदर वर्णन कोई और नहीं कर पाया।
आचार्य श्रीवल्लभाचार्यजी से मुलाकात :

सूरदास जी बचपन में ही अपने परिवार से दूर हो गए थे । ताकि वह किसी पर बोझ ना बने। वह बचपन मे ही मथुरा की गाऊघाट पर रहने के लिये चले गये थे । वहीं सूरदास जी की मुलाक़ात आचार्य श्रीवल्लभ से हुयी। सूरदास जी द्वारा रचित भक्ति के पदों को देखकर वह पूरी तरह से प्रभावित हो गये और उन्होंने सूरदास जी को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वल्लभाचार्यजी ने उन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करवाया और इन्हें श्रीनाथजी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे सूरदास जी जीवन पर्यंत निभाते रहे।
महान् कवि सूरदास जी आचार्य वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्यों में से एक थे । और यह अष्टछाप कवियों में भी सर्वश्रेष्ठ स्थान रखते थे।
महाकवि सूरदास जी के भक्तिमय गीतों की गूंज चारों तरफ फैल रही थी। जिसे सुनकर स्वंय अकबर भी सूरदास जी की रचनाओं पर मुग्ध हो गए थे।
प्रमुख रचनाएँ :

नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास जी के 16 ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है। इनमें सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो के अतिरिक्त सूरसागर सार, प्राणप्यारी, गोवर्धन लीला, दशमस्कंध टीका, भागवत्, सूरपचीसी, नागलीला, आदि ग्रन्थ सम्मिलित हैं। वैसे तो इनकी केवल तीन रचनाओं के प्रमाण है, बाकि किसी का प्रमाण नहीं है।
हिन्दी साहित्य में सूरदास जी को सूर्य की उपाधि दी गयी है। उनके इस उपाधि पर एक दोहा प्रसिद्ध है।
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश॥
सूरदासजी द्वारा रचित ‘सूरसागर’ में श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध की कथा का अत्यंत सरस तथा मार्मिक चित्रण है। उसमें सवा लाख पद बताए जाते हैं, यद्यपि इस समय उतने पद नहीं मिलते हैं। एक बार भक्त श्री सूरदास जी एक कुएं में गिर गए और छ: दिनों तक उसी में पड़े रहे। सातवें दिन भगवान श्री कृष्ण ने प्रकट होकर इन्हें दृष्टि प्रदान की। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण के रूप-माधुर्य का छक कर पान किया। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण से यह वर मांगा कि ‘‘मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया, उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूं।
सूरदास जी की मृत्यु 1583 ईसवी में गोवर्धन के पास स्थित पारसौली गांव में हुई थी। सूरदास जी ने काव्य की धारा को एक अलग ही गति प्रदान की। जिसके माध्यम से उन्होंने हिंदी गद्य और पद्य के क्षेत्र में भक्ति और श्रृंगार रस का बेजोड़ मेल प्रस्तुत किया है। साथ ही ब्रज भाषा को साहित्यिक दृष्टि से उपयोगी बनाने का श्रेय महाकवि सूरदास जी को ही जाता है।
यहां तक कि इन्हें उद्धव का अवतार भी कहा जाता है। विक्रम संवत 1620 के लगभग गोसाईं विठ्ठलनाथ जी के सामने परसोली ग्राम में श्री राधाकृष्ण की अखंड रास में सदा के लिए लीन हो गए।