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मेवाड़ के 53वें श्री एकलिंग दीवान : उदयपुर संस्थापक महाराणा उदयसिंह की 500वीं जयंती

Divyashankhnaad by Divyashankhnaad
16/09/2021
in फिचर, भारत, राजस्थान
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मेवाड़ के 53वें श्री एकलिंग दीवान : उदयपुर संस्थापक महाराणा उदयसिंह की 500वीं जयंती
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विभिन्न कार्यक्रमों का होगा आयोजन, उदयसिंहजी के कार्यकाल की विशिष्ट जानकारी


उदयपुर 16 सितम्बर। उदयपुर संस्थापक महाराणा उदयसिंह (द्वितीय) के जन्म को इस वर्ष भाद्रपद शुक्ल एकादशी विक्रम संवत् 2078 (इस वर्ष 17 सितम्बर 2021) को 500 वर्ष होने जा रहे हैं। उदयपुर संस्थापक की 500वीं जयंती के पावन अवसर पर महाराणा मेवाड़ चेरिटेबल फाउण्डेशन, उदयपुर की ओर से 17 सितम्बर से 29 अक्टूबर 2021 तक महाराणा उदयसिंह जी पर सायं 4 से 5 बजे तक वर्चुअल व्याख्यान माला आयोजित की जाएगी, जिसका शुभारंभ फाउण्डेशन के ट्रस्टी लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ अपने विचार रखते हुए करेंगे। विभिन्न कार्यक्रमों में सर्वप्रथम 17 सितम्बर को पंडितों द्वारा पुष्पाभिषेक के पश्चात् प्रातः 11 बजे से 1 बजे तक जनाना महल के लक्ष्मी चौक में उदयपुर जैल बैंड द्वारा स्वरलहरियां प्रस्तुत की जाएगी।
इसके साथ ही फाउण्डेशन की ओर से महाराणा उदयसिंह के जीवन-व्यक्तित्व पर सचित्रों सहित ऐतिहासिक जानकारियां सिटी पेलेस उदयपुर के जनाना महल एवं महाराणा प्रताप स्मारक, मोती मगरी पर 15 सितम्बर से 15 अक्टूबर 2021 तक आने वाले पर्यटकों के लिए प्रस्तुत की जाएगी।
इस आयोजन के अवसर पर महाराणा मेवाड़ चेरिटेबल फाउण्डेशन, उदयपुर के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी भूपेन्द्र सिंह आउवा ने बताया कि कोरोना महामारी पर सरकार द्वारा जारी सभी नियमों व दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए समस्त कार्यक्रमों को किया जाएगा। इसी तरह व्याख्यान माला के उद्घाटन सत्र में ट्रस्टी लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ उद्बोधन प्रस्तुत करेंगे तथा इतिहासकार नारायण लाल जी शर्मा महाराणा उदय सिंह जी पर अपना व्याख्यान देंगे। व्याख्यान माला को आगे बढ़ाते हुए कई व्याख्याता, महाराणा उदयसिंह जी के शासन काल के विभिन्न विषयों पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत करेंगे। सभी कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण सोशल मीडिया के मार्फत इटरनल मेवाड़ के पेज़ेज पर प्रस्तुत किया जाएगा
महाराणा उदयसिंह द्वितीय का व्यक्तित्व
महाराणा उदयसिंह स्वातंत्र्य प्रेमी, स्वाभिमानी, दूरदर्शी महाराणा होने के साथ-साथ कुशल योजनाकार भी थे, किंतु इतिहासकारों ने उनकी नीतियों को सही तरह से नहीं समझा अतः इतिहास में उन्हें वह स्थान नहीं मिला जो बेहतर प्रशासक के रूप में मिलना चाहिये था। महाराणा उदयसिंह जिन्हें न केवल 1303 ई. के जौहर का पता था और अपनी माता कर्णावती के जौहर का भी स्मरण था। इसी कारण उन्होंने यह निर्णय लिया कि किसी भी परिस्थिति में राज्य के उत्तराधिकारी को बचाना उनका सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। इसी कारण से उन्होंने चित्तौड़गढ़ को छोड़कर पर्वतीय श्रृंखलाओं के मध्य स्थित उदयपुर जैसी राजधानी का निर्माण करवाया। महाराणा ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण व उसके पतन के पश्चात् भी मुगल अधीनता को स्वीकार नहीं करके प्राचीन मेवाड़ राज्य की गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखा जो उनके साहस व स्वाभिमान का प्रतीक है। महाराणा ने अपनी नीतियों से राज्य में नई चेतना, नया जीवन, नई राजनीति, नये मूल्यों और नये विश्वास का संचार किया। इसी पृष्ठभूमि पर भविष्य में मेवाड़ महाराणा प्रताप के नेतृत्व में स्वतंत्रता, स्वाभिमान का केन्द्र बनकर उभरा।
पन्नाधाय का बलिदान

वीरता व स्वामीभक्ति की प्रतिमूर्ति पन्नाधाय रणथम्भौर से ही कुंवर उदयसिंह का लालन-पालन कर रही थी। वह राजमाता कर्णावती की विश्वस्त सहायिका थी अतः जौहर के समय कुंवर उदयसिंह की सुरक्षा का भार भी पन्नाधाय को सौंपा गया था। गुजरात के शासक बहादुरशाह के आक्रमण के पश्चात् राजपूती सेना ने संगठित होकर पुनः चित्तौड़गढ़ को प्राप्त कर महाराणा विक्रमादित्य को बूंदी से बुलाकर राज्य सौंपा किंतु उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। राजनैतिक अव्यवस्था व सरदारों के असंतोष का लाभ उठाकर बनवीर (महाराणा संग्रामसिंह के भाई कुंवर पृथ्वीराज का पासवान पुत्र) ने राज्यसभा में अपना स्थान बनाकर महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी। महाराणा की हत्या के बाद कुंवर उदयसिंह की हत्या कर बनवीर मेवाड़ पर अपना राज्य स्थापित करना चाहता था। पन्नाधाय राजमहलों की गतिविधियों व संभावित परिवर्तनों के सम्बन्ध में सजग थी अतः जब बनवीर कुंवर उदयसिंह को मारने के लिए महल में आया, पन्नाधाय ने उदयसिंह के स्थान पर अपने पुत्र चंदन को सुला दिया, बनवीर ने पन्नाधाय के सामने उसके पुत्र चंदन का वध कर दिया। पन्नाधाय ने अपने विश्वस्त साथियों के साथ कुंवर उदयसिंह को सुरक्षित महल के बाहर निकाल दिया। मेवाड़ राज्य के वंशज की रक्षा हेतु पन्नाधाय का यह बलिदान मेवाड़ में सदा के लिए अमर हो गया। पन्नाधाय कुंवर उदयसिंह के साथ चित्तौड़गढ़़ से निकल कर देवलिया, डूंगरपुर होते हुए कुंभलगढ़ पहुंची। कुंभलगढ़ के किलेदार आशा देवपुरा के सहयोग व पन्नाधाय के सानिध्य में महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ के सरदारों से सर्म्पक स्थापित किया। बनवीर से असंतुष्ट सरदारों ने कुम्भलगढ़ आकर नजराना करके मेवाड़ राज्य की बागडोर महाराणा उदयसिंह को सौंप दी।
महाराणा उदयसिंह द्वितीय का प्रारम्भिक शासनकाल
मेवाड़ के सरदारों का सहयोग प्राप्त कर महाराणा ने पाली के अखैराज सोनगरा की पुत्री जैवन्ता बाई के साथ विवाह किया। इस विवाह ने महाराणा के सम्बन्धों को व्यापक कर दिया। पाली के साथ-साथ जोधपुर के शासक मालदेव के साथ भी मैत्री सम्बन्ध स्थापित हुआ। महाराणा ने अपने सैन्य संगठन को मजबूत कर चित्तौड़गढ़़ पर आक्रमण की योजना बनाई। महाराणा व बनवीर की सेना का सामना मावली नामक स्थान पर हुआ जिसमें महाराणा की सेना विजयी हुई, इस क्रम में ताणा होते हुए सेना चित्तौड़गढ़ पहुंची। महाराणा की सेना ने आशा देवपुरा व चील मेहता के सहयोग व कूटनीति से किले में प्रवेश कर आक्रमण कर दिया, इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबरा कर बनवीर अपने परिवार व विश्वस्त सैनिकों के साथ लाखोटा दरवाजे से भाग निकला। सन् 1540 ई. में महाराणा उदयसिंह ने चित्तौड़गढ़ को पुनः प्राप्त किया। उत्तर भारत की राजनीतिक उथल-पुथल का प्रभाव राजपुताना पर भी दिखने लगा था। अफगाान शासक शेरशाह ने सन् 1540 ई. में दिल्ली पर अधिकार करके, सन् 1544 ई. में जोधपुर के शासक राव मालदेव को हराया। उस समय अजमेर का परगना जोधपुर के अधिकार में था अतः वह भी शेरशाह के अधिकार में आ गया। मेवाड़ पर संकट के बादल मंडराने लगे क्योंकि अगला आक्रमण चित्तौड़गढ़ होना था। चित्तौड़गढ़ अभी तक दूसरे साके के कारण आर्थिक हानि व सैन्य प्रशिक्षण की कमी से जूझ रहा था अतः युद्ध मेवाड़ के हित में नहीं था। शेरशाह भी मेवाड़ के क्षत्रिय वीरों की गाथा से प्रभावित था व युद्ध नहीं करके केवल चित्तौड़गढ़ पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहता था अतः इन परिस्थितियों में महाराणा उदयसिंह ने चतुरता पूर्वक चित्तौड़ दुर्ग की चाबियाँ भेज कर युद्ध को टाल दिया इस दूरदर्शिता के कारण महाराणा भविष्य में मेवाड़ की व्यवस्था करने में सफल को सके।
मेवाड़ के पड़ौसी राज्यों के साथ सम्बन्ध
महाराणा उदयसिंह ने सीमाओं की सुरक्षा के लिए पड़ौसी राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित किए। राज्यों के आंतरिक संघर्ष के समय निर्णायक हस्तक्षेप करके मेवाड़ की सुरक्षा को सुनिश्चित किया। सन् 1554 ई. में बूंदी के शासक राव सुरताण का विरोध होने पर महाराणा ने अपने मामा अर्जुन के पुत्र सुर्जन हाड़ा के नेतृत्व में सेना भेज कर बूंदी व उसके बाद रणथम्भौर पर मेवाड़ का अधिकार स्थापित किया। महाराणा उदयसिंह व जोधपुर के शासक मालदेव के मित्रतापूर्ण सम्बन्ध तब समाप्त हो गए जब महाराणा ने झाला अज्जा के पुत्र जैत्र सिंह झाला की छोटी पुत्री से विवाह करना स्वीकार किया, जिससे राव मालदेव विवाह करना चाहते थे। अजमेर परगने पर अफगान हाजी खां का अधिकार होने पर राव मालदेव ने अजमेर पर आक्रमण की योजना बनाई तब हाजी खां ने महाराणा से सहायता मांगी। हाजी खां के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने के लिए महाराणा ने बूंदी, डूंगरपुर, बांसवाड़ा व ईडर की संयुक्त सेना को भेजा। महाराणा की सेना का समाचार सुनकर जोधपुर की सेना बिना युद्ध किये लौट गई व अजमेर सुरक्षित रहा। सिरोही के शासक राव रायसिंह के मेवाड़ के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध थे। रायसिंह की मृत्यु के समय राज्य का उत्तराधिकारी उदयसिंह कम उम्र का था अतः राज्यभार उनके भाई दुदा को सौंपा गया। राव दुदा की मृत्यु के पश्चात् उदयसिंह का राजतिलक किया गया व दुदा के पुत्र मानसिंह को लोहियाना की जागीर मिली। राव उदयसिंह के व्यवहार से क्षुब्ध होकर मानसिंह ने मेवाड़ मे शरण ली। राव उदयसिंह की चेचक से मृत्यु के पश्चात् सिरोही सरदारों ने मानसिंह को बुलाकर राजतिलक कर दिया किंतु महाराणा के प्रभाव से मानसिंह ने मेवाड़ के अधिकार को स्वीकार किया। इस प्रकार महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ की सैन्य शक्ति व आर्थिक दशा को सुधार कर राजपुताना में मेवाड़ का प्रभाव पुनः स्थापित किया।
नवीन राजधानी उदयपुर का निर्माण
मेवाड़ की पूर्व परम्परा व राज्य की अवधारणा यहीं थी कि राजधानी का पतन होते ही माना जाता था कि राज्य का पतन हो गया। मेवाड़ में भी राजधानी चित्तौड़गढ़ की सुरक्षा हेतु दो जौहर हो चुके थे। चित्तौड़गढ़ की सुरक्षा उसकी भौगोलिक स्थिति के कारण संकटग्रस्त थी क्योंकि उत्तर भारत को पश्चिमी तटों व मालवा सेे जोड़ने वाला यह प्रमुख केन्द्र था इसलिए सदैव से राजनैतिक शक्तियों की महत्वकांक्षाओं का केन्द्र रहा था। पहाड़ी पर स्थित होने के कारण चारों ओर से घेराव करना आसान था, रसद कम होने पर किले के द्वार खोलने पड़ते थे अतः सुरक्षा करना कठिन हो जाता था। इसके अतिरिक्त उस समय मेवाड़ की आर्थिक स्थिति दुर्बल होने के कारण बड़ी सेना का गठन करना संभव नहीं था अतः खुले मैदानों में युद्ध किसी भी स्थिति में लाभकारी नहीं था और नेतृत्वकर्त्ता का जीवित रहना राज्य के भविष्य के लिए आवश्यक था। इन परिस्थितियों के कारण, महाराणा उदयसिंह ने नवीन सुरक्षित राजधानी निर्माण के विचार को प्रतिपादित किया। नई राजधानी के लिए महाराणा ने मेवाड़ के पश्चिम व दक्षिण-पश्चिम में पहाड़ियों की कतारों से आच्छादित पर्वतीय प्रदेश को चुना जिसे प्रकृति प्रदत्त सुरक्षा प्राप्त थी। सन् 1553 ई. में अक्षय तृतीया के दिन गिरवा की पहाड़ियों के मध्य उदयपुर की स्थापना की गई। महाराणा उदयसिंह ने पर्वतीय क्षेत्र को सुरक्षित करने का प्रयत्न कर मेवाड़ की प्रजा को इस क्षेत्र मेें बसने को प्रोत्साहित किया। मेवाड़ शासन के सीधे सम्पर्क में आने के कारण यह पर्वतीय क्षेत्र विकसीत हुआ। सन् 1559 ई. में महाराणा ने पौत्र जन्म के उपलक्ष्य में श्री एकलिंगनाथ जी की यात्रा की, इस दौरान शिकार करते समय महाराणा की मुलाकात पिछोला तालाब के किनारे साधु प्रेमगिरि जी से हुई। उनके आदेशानुसार, सन् 1559 ई. में महाराणा ने राजधानी में राजा नामक सूत्रधार के निर्देशन में राजमहल का निर्माण आरम्भ किया। उदयपुर के निर्माण के समय पहाड़ों में स्थित सुरक्षित स्थान गोगुन्दा को महाराणा ने अपनी अस्थायी राजधानी बनाया। इस प्रकार महाराणा उदयसिंह को उदयपुर व गोगुन्दा दो राजधानियाँ बसाने का श्रेय है।
महाराणा उदयसिंह द्वितीय कालीन सैन्य नीति
महाराणा उदयसिंह की सैन्य व प्रशासनिक नीतियों पर राज्य के आंतरिक व बाह्य संघर्ष का व्यापक प्रभाव पड़ा। सर्वप्रथम, महाराणा ने मेवाड़ को संगठित करने व अनावश्यक युद्ध व आक्रमण नहीं करने पर ध्यान दिया। सन् 1535 ई. के साके से हुई आर्थिक व सैन्य क्षति को पूर्ण करने हेतु महाराणा ने उदयपुर को राज्य का केन्द्र बनाकर पर्वतीय प्रदेश को विकसित किया। सीमित सेना व आत्मसुरक्षा के साथ रक्षात्मक युद्ध प्रणाली को प्रचलित किया। पर्वतीय प्रदेश में भारी तोपों का प्रयोग मैदानी क्षेत्रों की तुलना में कठिन था, अतः प्रकृति प्रदत्त सुरक्षा का उपयोग करके राज्य स्थिरता प्रदान की। महाराणा उदयसिंह ने मेवाड़ की सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए पड़ौसी राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित किए व अपने प्रभाव से आंतरिक हस्तक्षेप के ़द्वारा मेवाड़ क्षेत्र की सुरक्षा को सुनिश्चित किया। मेवाड़ के सरदारों के साथ सौहार्द्रता पूर्ण व्यवहार करके राज्य को आंतरिक सुरक्षा प्रदान की। पड़ौसी राज्य भी मेवाड़ के नेतृत्व में स्वयं को सुरक्षित अनुभव करने लगे इस बात का प्रमाण मेड़ता के राजा, मालवा के सुलतान बाजबहादुर तथा गवालियर के राजा रामशाह का मेवाड़ में शरण लेने से मिलता है। राज्य की प्रजा को सुरक्षित रखने केे लिए पर्वतीय क्षेत्रों में बसने को प्रोत्साहित किया। उदयपुर की स्थापना करके दस्तकारों, काश्तकारों व व्यापारी वर्ग को बुलाकर यहां बसाना प्रारम्भ किया । मेवाड़ पुनः को सुदृढ़ व सुरक्षित करने का श्रेय महाराणा उदयसिंह के द्वारा प्रतिपादित सैन्य व प्रशासनिक नीतियों को जाता है।
चित्तौड़ का तीसरा साका (सन् 1568 ई.)
उत्तर भारत में मुगल शासक अकबर का राज्य स्थापित हो गया था व राजपुताने के राज्य मुगल सत्ता को स्वीकार करने लगे थे, उस समय में मेवाड़ अपनी स्वाभिमानी परम्परा के साथ स्वतंत्र राज्य के रूप में खड़ा चुनौती दे रहा था। मेवाड़ अपने सिंचित उपजाऊ मैदान व पर्वतमालाओं से संरक्षित था। उत्तर भारत को गुजरात व दक्षिण के प्रदेशों से जोड़ने का मार्ग मेवाड़ से होकर गुजरता था अतः मुगल शासन के लिए मेवाड़ का स्वतंत्र राज्य प्रमुख बाधा बना हुआ था। सितम्बर, सन् 1567 ई. में मुगल शासक अकबर चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण के लिए बढ़ा। महाराणा को इस संकट का पूर्वाभास पहले से ही था, इसी कारण उन्होंने पर्वतीय प्रदेश में उदयपुर नगर की स्थापना, अस्थायी राजधानी गोगुन्दा के साथ-साथ मेवाड़ की दक्षिणी, दक्षिणी-पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित कर लिया था। महाराणा की दूरदर्शिता ने मेवाड़ को लंबे संघर्ष के लिए तैयार कर लिया था। चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण का समाचार मिलने पर महाराणा ने मेवाड़ के सरदारों के साथ विचार-विमर्श प्रारम्भ किया तब प्रमुख सरदारों ने महाराणा को चित्तौड़ दुर्ग कुछ सरदारों को सौंप कर परिवार व अन्य सरदारों के साथ पश्चिम की पहाड़ियों में जाने की सलाह दी। गुजरात आक्रमण के समय मेवाड़ की क्षति से सभी परिचित थे अतः चाहते थे कि महाराणा व राज्य के उत्तराधिकारी सुरक्षित रहकर, समय आने पर पुनः खोये हुए क्षेत्र को प्राप्त करंे। महाराणा ने सरदारों की सलाह को मान कर चित्तौड़ दुर्ग जयमल्ल और फत्ता को सौंपा व पर्वतीय प्रदेश में चले गए। अक्टूबर सन् 1567 ई. में मुगल सेनाओं ने किले के पास पहुंच कर डेरा डाला। दिसम्बर सन् 1567 ई. तक मुगल सेना किले में प्रवेश करने हेतु प्रयासरत रही। दीर्घकाल तक संघर्ष के कारण किले मे रसद समाप्त होने से दुर्ग के द्वार खोल कर युद्ध करने की स्थिति में चित्तौड़ में तीसरा जौहर हुआ। मेवाड़ी सरदार जयमल्ल व फत्ता के नेतृत्व में राजपूती सेना व कल्लाजी जैसे सेनानायकोें ने केसरया धारण कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। फरवरी 1568 ई. में मुगल सेना ने किले पर अधिकार कर लिया।
महाराणा उदयसिंह द्वितीय कालीन स्थापत्य
महाराणा उदयसिंह के राज्यकाल का स्थापत्य कलात्मक पक्ष की अपेक्षा रक्षात्मक दृष्टिकोण को उजागर करता है। युद्ध को दृष्टिगत रखकर ही निर्माण कार्य करवायें गए थे। उदयपुर नगर की स्थापना व विकास महाराणा की महत्वपूर्ण पहल थी। उदयसागर, बड़ी पाल का निर्माण, मोती मगरी के महल, बावड़िया आदि उनके स्थापत्य दृष्टिकोण के पुख्ता प्रमाण है। उदयपुर के राजमहल में नौचौकी, पानेरा, रायआंगण, नीका की चौपाड़, पांडेजी की ओरी, सेज की ओरी, जनाना रावला (वर्तमान में कोठार), दरीखाना की पोल महाराणा उदयसिंह के द्वारा बनवाये हुए है। इसके अतिरिक्त उदयसागर की पाल पर उदयश्याम मंदिर का निर्माण भी महाराणा के राज्यकाल में हुआ। मेवाड़ की अस्थाई राजधानी गोगुन्दा में भी महाराणा द्वारा महल का निर्माण करवाया गया। महाराणा के अतिरिक्त उनका परिवार भी इस क्षेत्र के विकास में संलग्न था। महारानी सोनगरी द्वारा सन् 1554 ई. में बड़ला वाली सराय व पनघट बावड़ी का निर्माण करवाया। महारानी सहजकुंवर सोलंकिनी ने सराय, बावड़ी व शिव मंदिर का निर्माण करवाया। महारानी वीर कुंवर ने देबारी गांव के बाहर बावड़ी, मंदिर व सराय का निर्माण करवाया। महाराणा की कुशल योजना व दूरदर्शिता ने गिरवा क्षेत्र को आबाद कर दिया
महाराणा उदयसिंह द्वितीय का धार्मिक अनुराग
बाल्यकाल में महाराणा उदयसिंह को भक्तिमति मीरां बाई का सानिध्य मिला जिससे उन्हें धर्म व वैराग्य का ज्ञान प्राप्त हुआ। उदयसागर की पाल पर उदयश्याम मंदिर निर्माण की प्रेरणा उसी सानिध्य का परिणाम है। श्रीनाथजी की प्राकट्य वार्ता के अनुसार, गोस्वामी श्री विट्ठल नाथजी जब यात्रा के लिए मेवाड़ के रास्ते द्वारका पधारें, तब उन्होंने यह भविष्यवाणी की, कुछ वर्ष के बाद श्रीनाथजी प्रभु मेवाड़ में पधारकर, विराजेंगे। महाराणा उदयसिंह राजपरिवार के साथ श्री गोस्वामी जी के दर्शन को गए तब उन्होंने सिंहाड़ गांव व मोहर भेंट की व गोस्वामी जी से वंश की कीर्ति सदैव बनी रहे ऐसा आशीर्वाद प्राप्त किया। महाराणा ने विक्रम संवत् 1602 में श्री परमेश्वराजी महाराज श्रीएकलिंगनाथजी मन्दिर का शिखर कलश प्रतिष्ठित करवाया था।
महाप्रयाण
महाराणा का चित्तौड़गढ़ छोड़ने के बाद से अधिकतम समय कुम्भलगढ़ में व्यतीत हुआ था। विक्रम संवत् 1628 को विजयादशमी के अवसर पर महाराणा गोगुन्दा आए, वहीं स्वास्थ्य खराब होने के कारण फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन महाराणा उदयसिंह ने संसार से प्रयाण किया। राजधानी उदयपुर पूर्णतः विकसित नहीं हुई थी व गोगुन्दा मेवाड़ की अस्थायी राजधानी थी अतः गोगुन्दा में इनका दाह-संस्कार किया गया। दाह-संस्कार स्थल पर छत्री का निर्माण करवाया गया।

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