व्रज – फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा, शुक्रवार, 18 मार्च 2022
विशेष : होलिका प्रदीपन / दोलोत्सव ( डोल का उत्सव)
सामान्यतया होलिकोत्सव तिथी प्रधान होने से फ़ाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन और डोलोत्सव नक्षत्र प्रधान होने के कारण जिस दिन सूर्योदय के समय उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र होवे उस दिन मनाया जाता है. इस वर्ष आज के दिन होलिकोत्सव तथा डोलोत्सव दोनों का संयोग बना है.
ये दोनों उत्सव प्रभु के आनन्द के हैं, नियम के हैं अतः श्रीजी में होलिकोत्सव के राग, भोग व श्रृंगार का सम्पूर्ण सेवाक्रम डोलोत्सव के एक दिन पूर्व अर्थात कल फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को लिया गया.
आज डोलोत्सव अर्थात काम पर प्रभु की विजय का उत्सव मनाया जाएगा. परम्परानुसार मंदिर दोलोत्सव के पश्चात ख़ासा (साफ़) किया जायेगा. पुष्टिमार्ग में दोलोत्सव को काम-विजय उत्सव भी कहा जाता है. बसंत-पंचमी (जिसे मदन-पंचमी भी कहा जाता है) पर कामदेव का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने हमारे योगेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण को अपने अर्थात काम के वश में करने की ठानी.
गुलाल, अबीर, चोवा, चन्दन, अरगजा आदि सुगन्धित साधन एवं रंग कामोद्दीपक माने जाते हैं और प्रतिदिन इनके प्रयोग से प्रभु काम के वश में होंगे ये कामदेव का भ्रम था. इसके अलावा स्त्री वेश (विविध भांति की चोलियाँ) आदि पहना कर भी कामदेव ने प्रभु को काम के वश में करने की कुचेष्टा की परन्तु श्री कृष्ण को योगेश्वर ऐसे ही नहीं कहा जाता. कुछ वाद्य यंत्रों की ध्वनि भी कामोद्दीपक मानी जाती है अतः ढप, ढ़ोल बजा कर, रसिया (बैठे और ठाडे), धमार और अमर्यादित गालियाँ गाकर प्रभु को भोगी सिद्ध करने का निरर्थक प्रयास किया.
अंततोगत्वा चालीस दिन के निरर्थक प्रयास के पश्चात कामदेव ने प्रभु से क्षमा मांगी. तब योगेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण ने दोलोत्सव के रूप में काम-विजय उत्सव मनाया. आज सबसे अधिक गुलाल काम पर विजय के भाव से उड़ायी जाती है.
श्रीजी का सेवाक्रम – बड़ा पर्व रुपी उत्सव होने के कारण श्रीजी मंदिर के सभी मुख्य द्वारों की देहरी (देहलीज) को पूजन कर हल्दी से लीपी जाती हैं एवं आशापाल की सूत की डोरी की वंदनमाल बाँधी जाती हैं. आज पूरे दिन झारीजी में यमुनाजल भरा जाता है. गद्दल, रजाई हरी साटन की आती है. आरती सभी समां में (मंगला, राजभोग, संध्या-आरती व शयन) थाली में की जाती है.
आज श्रीजी को सफ़ेद जामदानी का सूथन, चोली तथा घेरदार वागा धराये जाते हैं. मोठड़ा का पटका, श्रीमस्तक पर चिल्ला की छज्जेदार पाग पर मोर चन्द्रिका धरायी जाती है.
प्रभु को गोपीवल्लभ (ग्वाल) भोग में केसरी चन्द्रकला, केशर-युक्त बासोंदी की हांडी व विविध फलों के मीठा अरोगाये जाते हैं.
राजभोग की अनसखड़ी में दाख (किशमिश) का रायता, सखड़ी में मीठी सेव व केसरी पेठा अरोगाये जाते हैं.
श्रीजी दर्शन :
साज : आज श्रीजी में राजभोग में सफ़ेद मलमल की चार तह की सादी पिछवाई धरायी जाती है जिसके ऊपर गुलाल व अबीर से भारी खेल किया जाता है. गादी, तकिया एवं चरणचौकी पर सफ़ेद बिछावट की जाती है. गुलाल खेल इतना अधिक होता है कि पिछवाई और साज का मूल रंग दिखायी ही नहीं पड़ता.
वस्त्र : आज श्रीजी को सफ़ेद जामदानी के सूथन, चोली तथा घेरदार वागा धराये जाते हैं. पटका मोठड़ा का धराया जाता है जिसके दोनों छोर आगे की ओर रहते हैं. सभी वस्त्रों पर गुलाल अबीर, एवं चोवा आदि से भारी खेल किया जाता है. ठाडे वस्त्र लाल रंग के धराये जाते हैं जिनपर गुलाल, अबीर आदि से खेल किया जाता है. प्रभु के कपोल और दाढ़ी भी रंगे जाते हैं.
श्रृंगार : आज प्रभु को वनमाला का (चरणारविन्द तक) हल्का श्रृंगार धराया जाता है. लाल, हरे, सफ़ेद व मेघश्याम मीना एवं जड़ाव स्वर्ण के सर्व आभरण धराये जाते हैं.
श्रीमस्तक पर सफ़ेद चिल्ला की छज्जेदार पाग के ऊपर सिरपैंच, मोरपंख की सादी चन्द्रिका एवं बायीं ओर शीशफूल धराये जाते हैं. श्रीकर्ण में जड़ाऊ के चार कर्णफूल धराये जाते हैं.
श्रीकंठ में नीचे दस पदक ऊपर ग्यारह माला सोने एवं मोती की धरायी जाती हैं.
श्रीकंठ में चंद्रहार एवं हमेल आदि धराये जाते हैं.
गुलाबी पुष्पों की दो सुन्दर थागवाली बड़ी मालाजी धरायी जाती हैं. श्रीहस्त में पुष्पछड़ी, स्वर्ण के वेणुजी एवं दो वेत्रजी (स्वर्ण के बटदार व एक नाहरमुखी) धराये जाते हैं. पीठिका के ऊपर भी गुलाब के पुष्पों की एक मोटी मालाजी धरायी जाती है.
पट चीड़ का व गोटी चांदी की आती है. आरसी दोनों समय बड़ी डांडी की आती है.
श्रीजी की राग सेवा के तहत आज
मंगला : रविजा तट कुंजन में गिरधर
राजभोग : अरी चल बेग छबीली हरी सों
पहले दर्शन : एहरी डोल मदन गोपाल, आज माई झुलत
दुसरे दर्शन : झुलत बढ्यो आनंद डोल, दोऊ नवल किशोर,
आज ललना फाग खेलत
तीसरे दर्शन : शोभा सकल सिरोमणि, हरी को डोल देख,
झुलत है पिय प्यारी
बालक के खेल : खेलत बसंत वर विट्ठलेश
आरती : खेल फाग फूल बैठे
शयन : डोल चन्दन को झुलत हलदरबीर
कीर्तनों का प्रभु के सन्मुख गायन किया जाता है.
दोलोत्सव भावना :
दोलोत्सव महामहोत्सव कहलाता है. श्री चन्द्रावली जी की सेवा का यह मुख्य उत्सव है. श्री हरिराय महाप्रभु की दोलोत्सव भावना के अनुसार यह अत्यंत गोपनीय लीला है.
श्री वृषभानजी एवं श्री कीर्तिजी प्रभु श्री कृष्ण को अपने यहाँ आमंत्रित करते हैं. अपने जंवाई को आमंत्रित कर विविध प्रकार की सामग्रियां अरोगाते हैं एवं तत्पश्चात गुलाल, अबीर छांटकर होली खेलाते हैं.
इस भाव से श्री नवनीतप्रियाजी आज प्रथम राजभोग में श्रीजी की गोदी में विराजते हैं. बाद में प्रभु नंदालय में पधारते हैं जहाँ नंदरायजी एवं यशोदाजी उन्हें अपने वात्सल्यरस से खेलाते हैं और विविध सामग्रियां अरोगाते हैं. तत्पश्चात निकुंज में, वृन्दावन में, श्री गोवर्धन की तलहटी में (जहाँ सुन्दर झरने बह रहे हैं, सदा बसंत खिला रहता है, वातावरण में शीतल सुगन्धित पवन बह रही है, अनेक प्रकार की माधुरी लताएँ, द्रुम बेलें, पुष्प एवं फलों से युक्त खिल रहे हैं) सुन्दर डोल (पुष्प पत्तियों से निर्मित झूले) की रचना व्रजभक्त करते हैं. श्री ठाकुरजी को डोल में पधराकर व्रजभक्त झुलाते हैं. प्रभु भक्तों के मनोरथ-पूरक हैं और अपने भक्तों के मनोरथ पूर्ण करने के लिए सर्व स्थानों पर डोल झूलते हैं. डोल के चार दर्शन होते हैं.
- श्रीनवनीतप्रियाजी आज अपने मंदिर में गुलाल नहीं खेलते हैं. वहां कल रात्रि को ही गुलाल साफ़ कर ली गयी है. आज श्री नवनीतप्रियाजी में पलना नहीं होता. नियम का राजभोग सरने के पश्चात डोल का अधिवासन किया जाता हैं. लाड़ले लाल प्रभु अपने घर राजभोग अरोग कर श्रीजी में पधारते हैं और श्रीजी की गोदी में विराजित होते हैं. पूज्य श्री तिलकायत अथवा मुखियाजीं आरती करते हैं. आरती के पश्चात नवनीतप्रियाजी डोल में बिराजते हैं और गुलाल से सुक्ष्म खेल होता हैं. प्रथम भोग के दर्शन सामान्य वैष्णवों के लिये बाहर नहीं खोले जाते.
- सूक्ष्म खेल के बाद दूसरे भोग आते है ओर शंखोदक,धुप,दिप किया जाता हैं. भोग सराने के पश्चात दर्शन खोले जाते हैं एक बीड़ी आरोग़ाई जाती हैं फिर गुलाल ओर अबीर से भारी खेल होता हैं पिछवाई,चंदुआ छाँटे जाते हैं. दूसरी बीड़ी आरोग़ाई जाती हैं फिर इसी क्रम से खेल होता हैं गुलाल,अबीर उड़ाया जाता हैं. आरती की जाती हैं और पुष्प उड़ाए जाते हैं. उसके पश्चात धुप,दिप किया जाता हैं और फिर तीसरे भोग आते हैं इसमें दूसरे भोग से दुगने भोग आते हैं.भोग सराने के बाद मालाजी नयी धरायी जाती हैं और तीसरे भोग के दर्शन खोले जाते हैं. दो बीड़ी आरोग़ाई जाती हैं फिर गुलाल ओर अबीर से भारी खेल होता हैं दर्शनों के दौरान दोनों ओर से अनवरत अबीर, गुलाल उड़ाए जाते हैं और अत्यधिक मात्रा में उड़ाए जाते हैं जिससे डोल तिबारी में अँधेरा सा छा जाता है. फिर यही क्रम से चौथे भोग में दोहराया जाता हैं.
- डोलतिबारी के पीछे के दो खण्डों (जहाँ श्रावण मास में हिंडोलना बंधता है) में डोल (एक पुष्प-पत्तियों से निर्मित झूला) बाँधा जाता है जिसमें श्री नवनीतप्रियाजी विराजित हो डोल झूलते हैं और आगे के एक खंड में वैष्णव दर्शनों का लाभ लेते हैं.
इसके पश्चात श्री नवनीतप्रियाजी डोल से श्रीजी की गोद में पधारते हैं और एक बार और खेल होता है और आरती की जाती है.उसके पश्चात लालन अपने निज मंदिर में पधार जाते हैं. - उत्सव भोग में श्रीजी को कड़क मठड़ी, सेव गोली (छोटे लड्डू), कूर के पकागुंजा, कड़क शक्करपारा, मनोर (इलायची-जलेबी) के लड्डू, मेवाबाटी, केशरी चन्द्रकला, रसखोरा, दूधघर में सिद्ध मावे के पेड़ा-बरफी, दूधपूड़ी, बासोंदी, जीरा मिश्रित दही, केसरी-सफेद मावे की गुंजिया, घी में तला हुआ चालनी का सूखा मेवा, 8 विविध प्रकार के संदाना (आचार) के बटेरा, श्रीखंडवड़ी, छाछवड़ा, कांजीवड़ा, विविध प्रकार के फलफूल, शीतल आदि अरोगाये जाते हैं.
मंगला के पश्चात श्रृंगार, ग्वाल व प्रथम भोग भीतर होते हैं. दूसरे, तीसरे और चौथे भोग के दर्शन बाहर खुलते हैं. लेकिन इस बार कोरोना की व्यवस्था के चलते डोल दर्शन बाहर नहीं होंगे. - तत्पश्चात श्रीजी के स्नान होते है. श्रीजी को बड़े बूटा का दत्तु धराया जाता है. श्रीजी की सेवा में अंगीठी आदि सहित शीत की सेवा के साज भी विदा हो जाते है.
- नित्य क्रम से शयन तक की सेवा होती है.
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जय श्री कृष्ण
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