श्रीजी का श्री गिरिराजजी में से प्राकट्य दिवस
महर्षि गर्गाचार्य जी ने हजारों वर्ष पूर्व रचित गर्गसंहिता में गिरिराज खंड का भविष्य लिखा था कि कलयुग में श्री कृष्ण यहाँ प्रकट होंगे.
- येन रूपेण कृष्णेन घृतो गोवर्धनो गिरि: l
- तद्रूपं विद्यते तत्र, राजन् श्रृंगारमंडले ll
- अब्जाश्र्वतु: सहस्त्राणि तथा पंचशतानि च l
- गतास्तत्र कलेरादौ क्षेत्रे श्रृंगारमंडले ll
- गिरिराज गुहामध्यात् सर्वेषां पश्यंता नृप l
- स्वतः सिद्धं च तद्रूपं हरे: प्रादुर्भविष्यति ll
- श्रीनाथं देवदमनं च वदिष्यन्ति सज्जना: ll
अर्थात भगवान कृष्ण ने जिस स्वरुप में (बायाँ हाथ उठा) गिरिराज पर्वत उठाया था वह स्वरुप वर्तमान में व्रज में गुप्त रूप में विराजित है.
कलियुग के 4500 वर्ष पूर्ण होने के पश्चात श्रीहरि का स्वयंसिद्ध स्वरूप व्रज में श्री गिरिराज जी की कन्दरा में स्वतः प्रकट होगा एवं इस स्वरुप को सज्जन व्यक्ति देव-दमन कह कर पुकारेंगे.
महर्षि गर्गाचार्य जी की भविष्यवाणी अक्षरक्ष सत्य निकली. विक्रम संवत 1466 को श्री गोवर्धननाथ का प्राकट्य श्री गिरिराज पर्वत (गोवर्धन) पर हुआ.
यह वही स्वरूप था जिस स्वरूप से प्रभु श्री कृष्ण ने इन्द्र का मान-मर्दन करने के लिए व्रजवासियों की पूजा स्वीकार की और अन्नकूट की सामग्री आरोगी थी.
श्री गोवर्धननाथजी के सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य एक साथ नहीं हुआ था पहले वाम भुजा का प्राकट्य हुआ, फिर मुखारविन्द का और कुछ समय पश्चात सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ.
सर्वप्रथम विक्रम संवत 1466 की श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी) के दिन जब एक व्रजवासी अपनी खोई हुई गाय को खोजने श्री गिरिराज पर्वत पर गया तब उसे श्री गोवर्द्धनाथजी की ऊपर उठी हुई वाम भुजा के दर्शन हुए उसने अन्य ब्रजवासियों को बुलाकर ऊर्ध्व वाम भुजा के दर्शन करवाये. तब व्रजवासियों ने उनकी वाम भुजा का पूजन किया था. इसके बाद लगभग 70 वर्षों तक ब्रजवासी इस ऊर्ध्व भुजा को दूध से स्नान करवाते, पूजा करते, भोग धरते और मान्यता करते थे।