उदयपुर (दिव्य शंखनाद)। प्रतिवर्ष 14 नवम्बर से 20 नवम्बर तक ‘राष्ट्रीय पुस्तकालय सप्ताह’ के रूप में मनाया जाता है वर्ष 1968 में ‘इंडियन लाइब्रेरी एसोसिएशन’ द्वारा 14 नवम्बर से राष्ट्रीय पुस्तकालय सप्ताह मनाने की परम्परा को आरम्भ किया था।
तब से भारत भर में पुस्तकालयों द्वारा उसे एक उत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है। सर्व समाज को विभिन्न जानकारियों से अवगत कराने का यह एक सफल प्रयास रहा है। जिसमें पुस्तकालय अध्यक्षों से लेकर समस्त पुस्तकालय कर्मचारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। राष्ट्रीय पुस्तकालय सप्ताह विद्यालयों में भी विद्यार्थियों के लिये आयोजित किया जाता है। महाराणा मेवाड़ चेरिटेबल फाउण्डेशन द्वारा ‘राष्ट्रीय पुस्तकालय सप्ताह’ को मनाते हुए मेवाड़ के विभिन्न साहित्यों एवं उनके संग्रह स्थल पर महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी से फाउण्डेशन के प्रशासनिक अधिकारी भूपेन्द्र सिंह आउवा ने अवगत करवाया। मेवाड़ के कई महाराणा विद्यानुरागी एवं साहित्यकारों के आश्रयदाता रहे। जिनमें महाराणा कुंभा को विशेष रूप से जाना जाता है।
राष्ट्र को समर्पित था महाराणा कुम्भाकालीन ‘वाणी विलास पुस्तकालय’
मेवाड़ के महाराणाओं में महाराणा कुम्भा (वर्ष 1433-1458) की साहित्य में गहन रूचि थी। महाराणा कुम्भा भारत के महान लेखकों में सुमार रहे है, उन्हें विभिन्न प्रकार की पुस्तकों के संग्रहकर्ता के रूप में भी जाना जाता है। वर्ष 1438 में महाराणा ने कुम्भलगढ़ का जीर्णोद्धार करवाकर उसका विस्तार किया और जिसका निर्माण 1458 में पूर्ण हुआ। महाराणा कुंभा ने कुम्भलगढ़ में ‘वाणी विलास’ नाम से एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की थी। महाराणा कुंभा समय में कुंभलगढ़ शिक्षा का एक बड़ा केन्द्र बन गया था।
कह्न व्यास द्वारा रचित एकलिंगमहात्म्यम् अनुसार महाराणा कुंभा वेदों, मीमांसा, राजनीति, साहित्य, उपनिषदों और व्याकरण, संगीत एवं नाटक के ज्ञाता थे। महाराणा कुंभा एक महान यौद्धा के साथ-साथ पूर्ण विद्यानुरागी, स्वयं बड़े विद्वान एवं विद्वानों का सम्मान करने वाले थे। वे संगीत के विषय में ‘संगीतराज’, ‘संगीत मीमांसा’ एवं ‘सूडप्रबन्ध’ नामक ग्रंथों के रचनाकार थे। उन्होंने ‘चण्डीशतक’ की व्याख्या तथा ‘गीतगोविन्द’ पर ‘रसिकप्रिया’ नाम की टीका भी लिखी। उन्होंने चार नाटकों की भी रचना की जिनमें महाराष्ट्री, कर्णाटी, मेवाड़ी आदि भाषाओं का प्रयोग किया। वे कवियों के भी आश्रयदाता थे। इस कारण महाराणा कुंभा विद्वानों में अभिनव-भरताचार्य कहलाते थे। उन्होंने ‘संगीतरत्नाकार’ की भी टीका की तथा भिन्न-भिन्न रागों तथा तालों के साथ गायी जाने वाली अनेक देवताओं की स्तुतियाँ बनाई, जो एकलिंगमहात्म्यम् के राग वर्णन अध्याय में संग्रहीत है। शिल्पसंबंधी अनेक पुस्तकें भी उनके आश्रय में लिखी गई।
उनके राज्यकाल में सूत्रधार मण्डन ने देवतामूर्ति प्रकरण प्रासादमण्डन, राजवल्लभ, रूपमण्डन, वास्तुमण्डन, वास्तुशास्त्र, वास्तुसार और रूपावतार और मण्डन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी और मण्डन के पुत्र गोविन्द ने उद्धारधोरणी, कलानिधि तथा द्वारदीपिका पुस्तकों की रचना की। जय और अपराजित के मतानुसार कीर्तिस्तम्भों की रचना के समय महाराणा ने एक ग्रन्थ तैयार करवाया और उसे शिलाओं पर खुदवाकर कीर्ति स्तम्भ के नीचे बाहर की और लगवाया था। जिसके पूर्वाद्ध की रचना कवि अत्रि ने की थी। किन्तु अत्रि के देहावसान के बाद उत्तर्राद्ध की रचना उनके पुत्र कवि महेश ने की थी। कवि के सम्मान में महाराणा ने दो मदमत्त हाथी, सोने की डण्डी वाले दो चंवर और एक श्वेत छत्र प्रदान किये।