हों वारी जाऊं ईन वल्लभीयनपर अपने तन को करूं बिछौना शीसधरूं इनके चरणन तर ।
भाव भरी देखो मेरी अखियन मण्डल मध्य बिराजत गिरिधर ।।
पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के मध्य श्रीजी के दर्शन कर के उनके लिए मन में उपरोक्त भाव भावना वाले महाप्रभु श्री हरिरायजी के प्राकट्योंत्सव की बधाई
- गौस्वामी श्री हरिरायजी (1647) का जीवन चरित्र देखते है.
- नित्यलीलास्थ गौस्वामी श्री हरिरायजी का प्राकट्य विक्रमाब्द 1647 आश्विन कृष्ण पंचमी के शुभ दिन गोकुल में हुआ था.
- आप श्री गुसाईजी के द्वितीय पुत्र गोविन्दरायजी के पौत्र थे. आपके पिता कल्याणरायजी एवं माताश्री यमुनाबहूजी थीं.
- श्री गुसांईजी के चौथे पुत्र गोकुलनाथजी ने आपको ब्रह्म-सम्बन्ध दिया था. आपने वैष्णव संप्रदाय का सर्वज्ञान गुरुदेव गोकुलनाथजी एवं पिता कल्याणरायजी से प्राप्त किया था.
- आपको बाल्यकाल से ही भग्वाद्वार्ता में अपार रूचि थी.
- विक्रमाब्द 1725 में आप अपने सेव्य स्वरुप द्वितीय गृहधीश्वर प्रभु श्री विट्ठलनाथजी के साथ गोकुल से नाथद्वारा पधारे और जीवनपर्यंत यहीं विराजित रहे.
- सेवा उपरांत आप अपना समय नाथद्वारा के समीप खमनोर गाँव में एकांत में व्यतीत कर ग्रन्थ लेखन करते थे.
- आपके छोटे भ्राता गोपेश्वरजी के बहूजी ने अल्पायु में लीला में प्रवेश किया था. उनको इस वियोग से बाहर निकालने हेतु आपने प्रतिदिन एक शिक्षापत्र की रचना की जो कि वर्तमान में हरिरायजी के 41 शिक्षापत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं और वैष्णवों के घरों में नित्यनियम से पढ़े जाते हैं.
- इन शिक्षापत्रों में पुष्टिमार्ग के सर्व सिद्धांत सरल भाषाशैली में समझाये गये हैं.
- श्री हरिरायजी के ऊपर श्रीजी की अपार कृपा थी अतः प्रभु आपको सानुभाव जताते थे. श्रीजी सेवा में किसी से कोई भूल हो जाती तो स्वयं श्रीजी आपको बता देते थे. आपको श्रीजी के साक्षात दर्शन होते थे.
- पुष्टिमार्ग की वृद्धि एवं विकास हेतु आप सदा तत्पर रहते थे. आपको कई भाषाओँ का ज्ञान था. आपने संस्कृत, व्रजभाषा, पंजाबी, मारवाड़ी, एवं गुजराती आदि भारतीय भाषाओँ में लगभग 300 ग्रंथों की रचना की है. वैष्णव संप्रदाय का कोई भी विषय आपकी लेखनी से अछूता नहीं रहा है. अत्यंत सरल शैली में रचित आपके ग्रन्थ आज भी काफी प्रसिद्ध हैं.
- आपकी अर्धांगिनी का नाम श्रीसुन्दरवंता बहूजी था जिन्होंने कई घोल कीर्तनों की रचना की है.
- आप गुजरात के डाकोर, सावली एवं जम्बुसर पधारे थे. सावली में विराजित हो आपने सेवा की भाव-भावना का ग्रन्थ ‘श्रीसहस्त्री भावना’ रचा था. जम्बुसर में युगल-गीत की कथा कर अद्भुत रसवर्षा की थी एवं डाकोर में प्रभु श्री रणछोड़रायजी को पधरा कर उनकी सेवा का प्रकार प्रारंभ किया. गुजरात के इन तीन स्थानों पर आपकी बैठक हैं.
- इसके अलावा व्रज में गोकुल, मेवाड़ में खमनोर, नाथद्वारा और मारवाड़ में जैसलमेर में भी आपकी बैठक है.
- अद्भुत लावण्ययुक्त गौरवर्ण एवं तेजस्विता के स्वामी श्री हरिरायजी राजस्थानी ज़ामा एवं पाग धारण करते थे. आप 120 वर्षों तक भूतल पर विराजित रहे. वैष्णव संप्रदाय में आपको ‘श्री हरिराय महाप्रभु’ और ‘श्री हरिराय प्रभुचरण’ आदि नामों से संबोधित किया जाता है.
- अद्भुत विद्वतायुक्त, प्रभु-अनुरागी और तेजस्वी हरिरायजी के जन्मोत्सव पर सभी वैष्णवों को ख़ूबख़ूब बधाई
श्री हरिरायजी द्वारा रचित 35 पदों की बड़ी दानलीला
राग-बिलावल
तुम नंदमहर के लाल मोहन जाने दे।
रानी जसुमति प्रान आधार मोहन जाने दे॥
श्री गोवर्धन के शिखर तें, मोहन दीनी टेर।
अंतरंग सों कहतें सब ग्वालिन राखों घेर॥ नागरी दान दे ॥१॥
ग्वालिन रोकी ना रहे ग्वाल रहे पचिहार।
अहो गिरधारी दोरिया सो कह्यो न मानत ग्वार ॥॥ नागरी दान दे ॥२॥
चली जात गोरस मदमाती मानो सुनत नही कान।
दोरि आये मन भामते सों रोकी अंचल तान॥॥ नागरी दान दे ॥३॥
एक भुजा कंकन गहे, एक भुजा गहि चीर।
दान लेन ठाडे भये, गहवर कुंज कुटीर॥॥ नागरी दान दे ॥४॥
बहुत दिना तुम बची गई हो दान हमारो मार।
आजहों लेहों आपनो दिन दिन को दान संभार ॥ नागरी दान दे ॥५॥
र्स निधान नव नागरी निरख वचन मृदु बोल।
क्यों मुरी ठाडी होत हे, घूंघट पट मुख खोल॥ नागरी दान दे ॥६॥
हरख हिये करि करखिकें मुख तें नील निचोल।
पूरन प्रगट्यो देखिये मानो चंद घटा की ओल ॥ नागरी दान दे ॥७॥
ललित वचन सुमुदित भये नेति नेति यह बेन।
उर आनंद अतिहि बढ्यो सो सुफल भये मिलि नेने॥ नागरी दान दे ॥८॥
यह मारग हम नित गई कबहू सुन्यो नही कान।
आज नई यह होत हे सो मांगत गोरस दान॥ मोहन जाने दे ॥९॥
तुम नवीन नवनागरि नूतन भूषण अंग।
नयो दान हम मांगनो सो नयो बन्यो यह रंग॥ नागरी दान दे ॥१०॥
चंचल नयन निहारिये अति चंचल मृदु बेन।
कर नही चंचल कीजिये तजि अंचल चंचल नेन॥मोहन जाने दे ॥११।
सुंदरता सब अंग की बसनन राखी गोय।
निरख निरख छबि लाडिली मेरो मन आकर्षित होय॥ नागरी दान दे ॥१२॥
ले लकुटी ठाडे रहे जानि सांकरि खोर।
मुसकि ठगोरि लायके सकत लई रति जोर॥ मोहन जाने दे ॥१३॥
नेंक दूरि ठाडे रहोकछू ओर सकुचाय।
कहा कियो मन भावते मेरे अंचल पीक लगाय॥ नागरी दान दे ॥१४॥
कहा भयो अंचल लगी पीक हमारी जाय।
याके बदले ग्वालिनी मेरे नयनन पीक लगाय॥ मोहन जाने दे ॥१५॥
सुधे बचनन मांगिये लालन गोरस दान।
मोहन भेद जनाई के सो कहेत आन की आन॥ नागरी दान दे ॥१६॥
जैसे हम कछु कहत हे एसी तुम कहि लेहु।
मन माने सो कीजिये पर दान हमारो देहु॥ मोहन जाने दे ॥१७॥
कहा भरे हम जात हे दान जो मांगत लाल।
भई अवार घर जाने दे सो छांडो अटपटी चाल॥ नागरी दान दे ॥१८॥
भरे जातहो श्री फल कंचन कमल वसन सों ढांक।
दान जो लागत ताहि को तुम देकर जाहु नोंसाक॥ मोहन जाने दे ॥१९॥
इतनी विनती मानिये मांगत ओलि ओड।
गोरस को रस चाखिये लालन अंचल छोड॥ नागरी दान दे ॥२०॥
संग की सखी सब फिर गई सुनि हें कीरति माय।
प्रीति हिय में राखिये सो प्रगट किये रस जाय॥ मोहन जाने दे ॥२१॥
काल्ह बहोरि हम आय हें गोरस ले सब ग्वारि।
नीकि भांति चखाई हें मेरे जीवन हों बलिहारी॥ नागरी दान दे ॥२२॥
सुनि राधे नवनागरी हम न करे विश्वास।
करको अमृत छांडि के को करे काल्हिकी आस॥ मोहन जाने दे ॥२३॥
तेरो गोरस चाखवे मेरो मन ललचाय।
पूरन शशिकर पाय के चकोर धीर न धराय॥ नागरी दान दे ॥२४॥
मोहन कंचन कलसिका किली सीस उतार।
श्रमकन वदन निहारिके सो ग्वालिन अति सुकुमार॥ मोहन जाने दे ॥२५॥
नव विंजन गहि लालजु श्री कर देत ढुराय।
श्रमित भई चलो कुंज में नंक पलोटु पाय॥ नागरी दान दे ॥२६॥
जानत हो यह कोन हे एसी ढीठ्यो देत।
श्री वृषभानकुमारि हे अरि तोहि बीच को लेत॥ मोहन जाने दे॥२७॥
गोरे श्री नंदराय जु गोरि जसुमति माय।
तुम यांहिते सामरे एसे लच्छित पाय ॥मोहन जाने दे॥२८॥
मन मेरो तारन बसे ओर अंजन की रेख।
चोखी प्रीत हिये बसे यातो सांवल भेख॥॥ नागरी दान दे ॥२९॥
आप चाल सों चालिये यहे बडेन की रीति।
एसी कबहुं न कीजिए हँसे लोग विपरीति॥ नागरी दान दे ॥३०॥
ठाले ठुले फिरत हो और कछु नही काम।
बाट घाट रोकत फिरो आन न मानत श्याम ॥मोहन जाने दे॥३१॥
यही हमारो राज है ब्रजमंदल सब ठौर।
तुम हमारी कुमुदिनी कम कमल बदन के भोंर। ॥ नागरी दान दे ॥३२॥
एसे में कोउ आई हे देंखे अद्भुत रीति।
आज सबे नंदलाल जु प्रगट होयगी प्रीति॥मोहन जाने दे॥३३॥
व्रज वृंदावन गिरी नदी पशु पंछी सब संग।
इनसो कहा दुराइये प्यारे राधा मेरो अंग॥॥ नागरी दान दे ॥३४॥
अंस भुजा धरि ले चले प्यारी चरन निहोर।
निरखत लीना रसिकजु जहां दान के ठोर॥मोहन जाने दे॥३५॥